Monday, January 21, 2019

हालात न सुधरे तो इतिहास बन जायेंगे यहां के नदी, पहाड़ व जंगल

  • अनियंत्रित उत्खनन से तबाह हो रहा कल्दा पठार का नैसर्गिक जीवन 
  • खनिज व वन संपदा का भण्डार फिर भी आदिवासी बेबस व लाचार 

कल्दा पठार के जंगल में विशाल वट वृक्ष का द्रश्य। फोटो - अरुण सिंह 

 अरुण  सिंह  

पन्ना।  हरी - भरी वादियों और खूबसूरत घने जंगलों से समृद्ध रहा पन्ना जिले का कल्दा पठार धीरे - धीरे अपनी पहचान खो रहा है। इस इलाके में खनिज व वन संपदा का विपुल भण्डार है, फिर भी यहां निवास करने वाले आदिवासी बेबस, लाचार और गरीब - गुरवा हैं। राजनीतिक रसूखवाले लोग सरकारी मानकों की अनदेखी कर मनमा।ने तरीके से उत्खनन करके करोडों कमाते हैं और यहां रहने वाले आदिवासी बद्हाली का दंश झेलने को मजबूर हैं। यदि यही आलम रहा तो यहां नदी, पहाड़ व जंगल इतिहास बन जायेंगे।

उल्लेखनीय है कि पन्ना जिला मुख्यालय से लगभग 70 किमी. दूर समुद्र तल से तकरीबन दो हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित कल्दा पठार को पन्ना जिले का पचमढ़ी कहा जाता है। लगभग पांच सौ वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले इस पठार में अधिसंख्य आबादी आदिवासियों की है। जिनका जीवन पूरी तरह से जंगल व वनोपज पर ही निर्भर है। प्रकृति के सानिद्ध में नैसर्गिक जीवन जीते हुए यहां के आदिवासी सदियों से जंगल को अपनी इबादतगाह मानते रहे हैं। लेकिन तथाकथित विकास व उत्खनन से जुड़े लोगों की दखलंदाजी बढऩे से यहां के रहवासियों का इबादतगाह तेजी से उजड़ रहा है। 

अवैध व अनियंत्रित उत्खनन तथा जंगल की कटाई से पठार के नैसर्गिक सौन्दर्य पर भी ग्रहण लगने लगा है। वनों की अवैध कटाई तथा अधाधुंध उत्खनन से यहां प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली वनौषधियां व हरीतिमा तिरोहित हो रही है। आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक दलों में बड़े ओहदों पर बैठे लोग जो गरीबों और आदिवासियों के कल्याण का दम भरते हैं उन्हें उजड़ते जंगल व गायब होते पहाड़ नजर नहीं आते, जिनके बिना यहां के आदिवासियों का जीवन संभव नहीं है।




कल्दा पठार का जंगल व यहां की हरी - भरी वादियां आदिवासियों की जिंदगी है, उनको उनकी जिंदगी से बेदखल किया जाना घोर अन्याय ही नहीं अपराध भी है। जंगल की अवैध कटाई व अधाधुंध उत्खनन आदिवासियों के नैसर्गिक जीवन व उनकी संस्कृति पर हमला है, जिसे रोका जाना चाहिए। कल्दा पठार के आदिवासियों  ने बताया कि यदि बाहरी लोगों की दखलंदाजी बंद हो जाय तो हम यहां जंगल में खुशहाल जीवन जी सकते हैं। इन्होंने बताया कि पठार के जंंगल से यहां के वाशिंदों को इतना वनोपज मिल जाता है कि जिन्दगी बिना बाधा व परेशानी के चल जाती है। 

यहां महुआ, अचार, आंवला, हर्र व बहेरा जैसे वनोपज प्रचुरता में पाया जाता है। श्यामगिरी, रामपुर, मैनहा, धौखान, पिपरिया, जैतीपुरा, टीकुलपोंडी भोपार, कुसमी, झिरिया व डोंडी में ही 50 ट्रक से भी अधिक महुआ का संग्रहण हो जाता है। इसके अलावा अचार व महुआ गोही से भी आदिवासियों को अच्छी आय हो जाती है। अमदरा, मैहर, कल्दा, पवई व सलेहा के व्यापारी आदिवासियों से वनोपज खरीद लेते हैं।

वनकर्मियों ने बताया  कि कल्दा पठार के श्यामगिरी का बांस पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध रहा है। यहां का जंगली बांस सालिड बैम्बू कहलाता था, जिसकी बहुत मांग थी। कागज इन्डस्ट्री ने इस बांस को बहुत पसंद किया और बड़े पैमाने पर इस बांस की सप्लाई कागज मिलों को हुई जिससे बांस का जंगल खत्म हो गया। कल्दा पठार के खत्म हो चुके ठोस बांस को फिर से पुर्नजीवित करने का प्रयास भी  किया गया लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इस क्षेत्र की वन संपदा व पर्यावरण  सुरक्षा को लेकर चिंतित लोगो का कहना है कि  पठार के जंगल को लोक संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए, ताकि यहां की वन संपदा व प्राकृतिक वैभव सुरक्षित रह सके।

शहद के उत्पादन में हुई भारी कमी 


कल्दा पठार के घने मिश्रित वनों में प्रचुर मात्रा में तकरीबन सौ कुन्टल शहद का उत्पादन होता था, लेकिन विगत कुछ वर्षों से यहां के जंगलों की मधुमक्खियां नाटकीय ढंग से लुप्त हो रही हैं। नतीजतन शहद के उत्पादन में भारी कमी आई, अब बामुश्किल 20  - 25  कुन्टल शहद का ही उत्पादन हो पा रहा है। मधु मक्खियों का तेजी से लुप्त होना इस बात का संकेत है कि यहां विकास के नाम पर विनाश हो रहा है। 
पर्यावरण को बेहतर बनाने तथा वनस्पतियों के वजूद को कायम रखने में मधुमक्खियों का अहम योगदान होता है। मधुमक्खियां सिर्फ शहद का ही संग्रह नहीं करतीं अपितु वे अपने साथ फूलों के परागकण दूसरे फूलों तक पहुंचाकर वनस्पतियों को उगने में सहायता पहुंचाती हैं। मधुमक्खियों के लुप्त होने के कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख मोबाइल टावर हैं। इनसे आने - जाने वाली तरंगों के कारण मधु मक्खियां अपनी दिशा ढूंढने की क्षमता खो रही हैं।

00000

No comments:

Post a Comment