Monday, December 2, 2024

एक दूसरे के पूरक चने की भाजी और हुरहुर

              


।। बाबूलाल दाहिया ।।

मित्रों ! कुछ चीजें प्रकृति ने कैसे एक को दूसरे की सहयोगी य पूरक बनाई है कि उसका साथ मिलते ही दूसरे की गुणवत्ता अपने आप बढ़ जाती है ? यह देखिये एक चने की भाजी है और दूसरा हुरहुर का पौधा। चने की भाजी के लिए तो हमारे बघेल खण्ड में एक कहावत ही कही जाती है कि -

          कुछ दिन दार त कुछ दिन बरी।

           बस थोरिन दिन धीरज धरी।।

          अइसय तइसय सामन टरी ।

          भादव लगत तरोई फरी ।।

          चना कै भाजी अई कुमार।

           देई माघ अमल्लक टार।।

दरअसल यह कहावत गाँव के उस अभाव ग्रस्त जीवन की झांकी है जिसमें लोग आशा की एक डोर के सहारे समय का इंतजार करते रहे आते थे। कि - "सावन भादों के माह तक किसी तरह दाल बरी एवं तरोई की सब्जी से समय गुजार लो ? फिर तो क्वार माह लगते ही चना की भाजी आ जायगी, जिससे हमे क्वार के माह से माघ तक बाद में तरकारी की कोई समस्या ही न रहेगी ? "लेकिन भाजी में अगर हुरहुर के दाने की छौंक न लगे तो स्वाद अधूरा ही रहता है। पर हुरहुर भी चने की भाजी का पक्का साथी है। उसमें उसी समय फल आते हैं जब खेत में चने की भाजी खोटने लायक हो जाती है।

धरती माँ की गोद कभी सूनी नही रहती ? इसीलिए इसमें उगने वाली वनस्पतियां तीन चार बार जमती हैं ताकि,जीव जंतुओं को हमेशा कुछ न कुछ भोजन मिलता रहे। और उसी में खोजी प्रबृत्ति का मनुष्य भी अपनी जरूरत पूर्ति कर लेता है। शुरू- शुरू में मानसूनी बारिश के बाद कुछ घास अषाढ़ में जमती है तो कुछ वर्षा समाप्ति के अंतिम दौर में भादो मास में ? और बाकी ठंड आने पर कातिक अगहन में भी उनका जमनें का शिलशिला चलता रहता है।

हुरहुर का पौधा

हुरहुर का पौधा वर्षा समाप्त के समय ही भादों में अपने आप खर पतवार की तरह घरों के आस पास उग आता है और जैसे ही पौधा एक फुट का हुआ उसमें सफेद रंग के फूल एवं लम्बी हरी फलियां भी आनें लगती हैं। और वह समय होता है क्वार कातिक माह का जब चने की भाजी भी आ जाती है और हुरहुर की फलियां भी जिसके दाने का उस भाजी में छौंक लगता है। यूं तो भाजी में कोदो का चावल य ज्वार का थोड़ा-थोड़ा आटा भी मिलाया जाता है। पर एक चीज और आवश्यक होती है ? वह है हींग। जब प्राचीन समय में ग्रामों में किराने की दूकाने नही हुआ करती थीं तो यूपी के गोंडा जिले के ब्यापारी गांव- गांव  पहुंच कर अपनी हींग बैसाख तक के लिए उघरी दे जाते थे।

अगर किसान का परिवार  "एक तोला"  लगभग 11-12 ग्राम हीग ले लेता तो वह पूरे सीजन के बघार के लिए पर्याप्त होती जाती थी। इस तरह ज्वार की रोटी और कोदो धान के चावल के साथ 3 माह तक चने की भाजी खाई जाती थी। पर मनुष्य की सब कुछ स्वाहा कर कोलिया बाड़ हर जगह कंक्रीट पोत देने की प्रबृत्ति के कारण अब हुरहुर भी बेचारी बिलुप्तता के कगार पर है।

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