।। बाबूलाल दाहिया ।।
कहते हैं आज का मनुष्य सबसे पहले अफ्रीका में जन्मा और फिर बेहतर जीवन की तलाश में वह इधर उधर चलता फिरता रहा। फिर कोई यूरोप पहुंचा, कोई आस्ट्रेलिया, और कोई अलास्का होते अमेरिकन महाद्वीपों पर भी पहुंच गया। पर यह अकेला माइग्रेशन नहीं था। पानी, भोजन और रहने योग्य योग्य वातावरण की तलाश में मनुष्य अपनी जगह छोड़ नए स्थानों में प्राचीन समय से ही बसता रहा है। उसने दुनिया भर के दुर्गम पहाड़ों और दर्रों को पार किया एवं जहां पहुँचा वहीं अपने आजीविका के नए-नए साधन खोजे। यह घूमना फिरना और बसना कोई अपराध नही बल्कि मानवीय सभ्यता का मूल स्वरूप है। पर कानून ने उसे तब अपराध बनाया जब नेशन स्टेट बने। यह भी महज सौ साल पुरानी अवधारणा है इसके पहले कभी नही थी।
देश, राष्ट्र, सीमाएं, नागरिकता, पासपोर्ट, वीजा जैसे शब्द भला इतिहास की किसी किताब में क्या मिलते हैं? दरअसल धर्म,जाति भाषा, रंग के बाद नस्लभेद का नया रंग नागरिकता ही है। इनमें कोई भी प्राकृतिक नहीं, बस गढ़ी हुई धारणा है। और इस धारणा में रची बसी है- हेकड़ी, घमण्ड, ताकत का नंगा नाच और जमीन कब्ज़ियाने की भूख। कि यहां का सब कुछ मेंरा है, तू निकल जा यहां से ? यानी कि (जिसकी लाठी, उसकी भैंस) ही कानून हैं।
भला आर्यो तुर्कों और अंग्रजों ने भारत में य स्पेनिश ने अर्जेन्टीना में घुसने के लिए किससे वीजा लिया था ? ग़ाज़ा में घुसकर वहां इजराइल बनाने वाले, किससे वीजा लेकर पहुंचे थे ? वह तो पूरा देश ही अवैधानिक हुआ ? डोनाल्ड ट्रम्प के पूर्वज भी अमरीका के मूल निवासी नही थे। वे जर्मन थे पर क्या वे जर्मनी से अमेरिका में आकर बसने के लिए रेड इंडियन्स लोगों से वीजा मांगा था ? उनके जैसे सारे गोरे ही वहां के मूल निवासी नही, सभी इमिग्रेंट हैं। य यूं कहें कि पूरा अमरीका ही इमिग्रेंट है। किसी के भी बाप दादों ने मूल निवासियों से वहां आने का वीजा नहीं लिया। बल्कि सब पानी के जहाज में ठुंसकर, य फिर पैदल चलकर उसी तरह आए थे जिसे वर्तमान में डंकी रूट कहा जाता है।
यह ठीक है कि कानून देश काल और वातावरण की जरूरत के अनुरूप बनते हैं। व्यवस्था सुचारू ढंग से चले, इसलिए बनते हैं। मुझे भी नागरिकता, वीजा, और पासपोर्ट जैसी व्यवस्थाओं से एतराज नहीं है। मगर मनुष्य द्वारा मनुष्य के अपमान से सख्त एतराज है। दरअसल दुनिया में दो तरह के कानून हैं। एक वे जो मानवीय नैतिकता के अनुरूप हैं। ऐसे कानून मनुष्य की गरिमा को उंचा उठाते हैं। लेकिन दूसरे वो भी हैं जो मनुष्यता को तार-तार करते हैं। पर उचित कानून तो वही कहे जायेंगे जो मनुष्य की गरिमा को आदर दें।
कानून तो नाजियों ने भी बनाए थे। और उनके कानून से लाखों इंसानों को अमानुष घोषित कर के गैस चेम्बरों में मौत के घाट उतारा गया था जो उनके कानून में एकदम लीगल था। कानून तो भारत ने भी बनाया था - (एनिमी प्रोपर्टी एक्ट) जिसमें सरकार ने अप्रवासियों द्वारा छोड़े गए घर, मकान और दुकानों को कब्जा लिए थे। फिर बनाया सी.ए.ए. कि - प्रताड़ितों को कपड़ों से पहचानकर उसमें पांच साल पहले अवैध घुसे, लीगल। चार साल पहले घुसे, इल्लीगल। हिन्दू घुसे, लीगल, मुस्लिम घुसे तो- इल्लीगल। पर अत्याचार, भेदभाव और अमानुषता को कानूनी दर्जा दे देने से वह सदाचार नहीं बन जाता ?
यदि अमेरिका, भारत से गए अप्रवासियों को नहीं रखना चाहता, डिपोर्ट करना चाहता है तो ठीक है करे। लेकिन अपमान और बेकद्री क्यों ? साथ ही हमारे भारत में ही, भारतीयों का इनके प्रति क्रिमिनल्स जैसा बर्ताव क्यों ? उन्हें क्यों नहीं गरिमा के साथ, वापस बुला लेना चाहिए। दरअसल जो लोग इस वक्त इन किस्मत के मारों को तुच्छता और क्रिमिनलिटी के साथ देख रहे हैं वे पाशविक, और मोटी समझ के लोग हैं।
आप भारत में ही देखें तो ऐसी बाते करने वाले हर शख्स को, खुद इमिग्रेंट ही पाएंगे। यह अलग बात है कि कोई 3 हजार साल पहले आया कोई बाद में। ऐसे तमाम शहरों में लोग मिल जांयगे जो अन्य प्रदेश से आकर वहां नौकरी, पढाई य व्यवसाय कर रहे है। पर बिडम्बना तो देखिए कि उन मे से भी बहुत से लोग अमेरिका से भेजे गए लोगों को सोशल मीडिया पर अपराधी भी घोषित कर रहे हैं। पर उन राज्यों में भी जब बिहारी होने के कारण पूना में, उत्तर भारतीय होने के कारण बैंगलोर में, और राजस्थानी होने के कारण असम में इसी तरह अपमानित किया जाने लगे तो क्या यह उचित होगा?
ठीक है अभी तक राज्यों के बीच माइग्रेशन इल्लीगल नहीं हुआ, पर वह भी तो हो सकता है ? बस किसी पागल नफरती नेता द्वारा एक कानून पास करने भर की तो देर है ? क्या अमरीका में बसने वाले 7 लाख लोगों ने कभी कल्पना की रही होगी ? पर आज उनकी दुर्दशा सामने है।
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