- खजुराहो बाल नृत्य महोत्सव का तीसरा दिन रहा कथक के नाम
- गुरुजनों की तालीम को ऊर्जा के मंच पर लाए बाल नृत्य कलाकार
खजुराहो। नेपथ्य में मंदिर की पाषाढ़ मूर्तियां, ऊपर खुला आसमान, सामने देश और विदेश से पधारे सुधि कला रसिक और मध्य में रचे गए मंच पर शिव की परम्परा को साकार करते देश—विदेश के साधनारत कलाकारों का अविस्मरणीय प्रस्तुतीकरण। कुछ ऐसा ही दृश्य बना खजुराहो नृत्य समारोह की तीसरी शाम। नृत्य की गरिमा और शास्त्रीयता को समर्पित यह आनंद उत्सव अपने 51वें संस्करण में प्रवेश कर चुका है।
समारोह परिसर में चहुं ओर कला—संस्कृति के रंग बिखरे हुए हैं। कहीं सजीव चित्रांकन तो कहीं पारंपरिक शिल्प से स्टॉल सजे हुए हैं। यह कलाकार और कला प्रेमियों का भारतीय कलाओं के प्रति अनंत आस्था और समर्पण ही है जो खजुराहो नृत्य समारोह जैसे अनुष्ठान साल दर साल समृद्ध और प्रसिद्ध होते जा रहे हैं। ऐसे समारोह को देख भारतीय संस्कृति गर्व का अनुभव कर रही है और अपने सच्चे पहरेदारों पर नाज कर रही है।
नृत्य के इस आनंद उत्सव की तीसरी शाम कुचीपुड़ी, कथक, मोहिनीअट्टम और कथकली नृत्य से सजी। इसका आगाज हुआ संगीत नाटक अकादमी अवॉर्डी सुश्री दीपिका रेड्डी के कुचिपुड़ी नृत्य से। उनकी प्रस्तुति की शुरुआत शिव पार्वती परिणय से हुई। तिसरा गति और आरभि रागम की इस प्रस्तुति में भक्तगण भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती की प्रशंसा में गाते और नृत्य करते हैं, साथ ही वे इस दिव्य विवाह की कहानी को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इन दैवीय जोड़े की शादी हुई थी। इसका संगीत डी. एस. वी. शास्त्री का था, जबकि कोरियोग्राफी दीपिका रेड्डी ने की।
अगले क्रम में थक्कुवेमि मनकु की प्रस्तुति हुई। सौराष्ट्र रागम् और आदि तालम् में निबद्ध यह प्रस्तुति तेलंगाना के प्रसिद्ध वाग्गेयकार रामदासु द्वारा रचित एक मधुर रचना है। वे भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। इस गीत में कवि हर्षपूर्वक भगवान राम की स्तुति करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीराम हमारे साथ हैं, तो हमें किसी चीज की कमी नहीं है। हमारा विश्वास है कि भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए मानव कल्याण हेतु विभिन्न अवतार (दशावतार) धारण किए हैं।
अगली प्रस्तुति रुद्रमा प्रवेशम् की थी। समुद्र प्रिया एवं धेनुका रागम् तथा आदि एवं खंडचापु तालम् की इस रचना को दीपिका रेड्डी की पुत्री और शिष्या श्लोका रेड्डी द्वारा प्रस्तुत किया गया। श्लोका ने आकर्षक ढंग से इस प्रस्तुति में दिखाया कि अपने पिता, राजा गणपति देव द्वारा पुत्र के समान पाली-पोसी गई रुद्रमादेवी, भारत की उन गिनी-चुनी महिलाओं में से थीं जिन्होंने सम्राट के रूप में शासन किया। इस नृत्य रचना में उनके वंश, साहसी व्यक्तित्व, घुड़सवारी में दक्षता और एक प्रशिक्षित योद्धा के रूप में उनकी तलवारबाजी की कुशलता को दर्शाया गया।
अंतिम प्रस्तुति मधुरम् मधुरम् की रही। यह भगवान श्री कृष्ण के दिव्य और चंचल क्रियाकलापों, बचपन की शरारतों, चमत्कारों और कृष्ण लीला के दृश्यों का आकर्षक चित्रण था। इस रचना का समापन एक मनमोहक नृत्य के साथ हुआ, जिसमें नर्तकी पीतल की थाली के किनारे खड़ी होकर नृत्य के जटिल और लयबद्ध कदमों का प्रदर्शन करती है, जो नटुवन्नार और तबलावादक के साथ तालमेल में होता है। यह कुचिपुड़ी की विशेषता है। इसके गीतकार रामभट्टला नरसिंह शर्मा, संगीत डी. एस. वी. शास्त्री और कोरियोग्राफी दीपिका रेड्डी की थी।
दूसरी प्रस्तुति कथक की थी, जिसे प्रस्तुत करने मंच पर पधारीं एलियोनोरा पेट्रोवा और तातियाना नाजारोवा, रूस। उन्होंने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत बसंत की बंदिश से की। इसके बाद ध्रुपद "पूजन चली महादेव" को अपनी आकर्षक भाव—भंगिमाओं से व्यक्त करते हुए दर्शकों का मन मोह लिया। अगली प्रस्तुति जयपुर घराने से संबद्ध थी, जिसे तीनताल में प्रस्तुत किया। अंतिम प्रस्तुति पारम्परिक गजल "बहार" प्रस्तुत कर विराम दिया।
तीसरी प्रस्तुति सुश्री गायत्री मधुसूदन, केरल के मोहिनीअट्टम नृत्य की थी। उन्होंने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत शशिसेकरास्तुति से की। इस रचना को महान चित्रकार राजा रवि वर्मा द्वारा लिखे गए गीतों से सजाया गया, जो नट्टकुरिंजी राग और रूपक ताल में निबद्ध थी। इसमें भगवान शिव का सुंदर वर्णन किया, जो पवित्र भस्म से सुशोभित हैं, जो सफेद बादलों के समूह की तरह चमकते हैं। कैलाश पर्वत पर बैठे हैं, जो हिमालय पर एक चांदी के मुकुट जैसा दिखता है। गीत सत्य और धार्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए भगवान के मार्गदर्शन की मांग करते हैं, जो शांति और पवित्रता की आभा का आह्वान करते हैं, जिसका प्रतीक सफेद रंग का प्रमुख रंग है।
इसके बाद, 'मुखाचलम' प्रस्तुत किया गया, जिसमें मोहिनीअट्टम के विशिष्ट गति पैटर्न को प्रदर्शित किया गया, जिसमें इसकी विशिष्ट तरंगें और डुबकी शामिल थीं। जीवंत रागमालिका और थलमालिका पर आधारित यह रचना केरल के लोकप्रिय लय पैटर्न को सहजता से मिश्रित कर रही थी, जिसमें कवलम की विशिष्ट शैली है। अगली प्रस्तुति पुन्नागावराली थी। इसमें जीमूथवाहन की कहानी दर्शायी गई, जो एक धर्मी राजा था, जिसने अपने वृद्ध माता-पिता के लिए शांतिपूर्ण शरण पाने के लिए अपना राज्य त्याग दिया था। यह प्रस्तुति रागमालिका और थालमालिका में निबद्ध थी, जिसका संगीत कोट्टकल मधु द्वारा रचित है और गीतकार मानव वर्मा हैं।
तीसरे दिन की अंतिम प्रस्तुति कथकली की थी। जिसे प्रस्तुत करने मंच पर नमूदार हुए संगीत नाटक अकादमी अवॉर्डी श्री सदानम के.हरिकुमार, केरल। नृत्य, संगीत और अभिनय के सौंदर्यपूर्ण मिश्रण का नृत्य कथकली, जिसमें अधिकतर भारतीय महाकाव्यों से ली गई कथाओं का नाटकीकरण किया जाता है। खजुराहो के सिद्ध मंच पर भी एक कथा नृत्य प्रेमियों को देखने मिली। जिसमें दिखाया जब पांडव अपने देश से निष्कासित होने के बाद जंगल में रह रहे थे, तो एक दिन वायु देवता ने द्रौपदी के सामने एक सुंदर सौगंधिकम फूल गिराया, जो भीम के पिता और द्रौपदी के ससुर थे। द्रौपदी ऐसे और भी फूल चाहती थीं और उन्होंने भीम को लाने के लिए मना लिया। हनुमान को अपने छोटे भाई के कारनामों के बारे में पता चला। वह उसकी वीरता और जोश की परीक्षा लेना चाहता था और उसके घमंड को चूर करना चाहता था। एक बूढ़े बंदर के रूप में हनुमान ने भीम की कार्यवाही में बाधा डाली। सच्चाई से अंजान, भीम ने हनुमान की पूंछ को उठाने और हटाने की कोशिश करते समय अपना गदा हनुमान की पूंछ के नीचे खो दिया। भीम की विनती के अनुसार हनुमान ने अपनी असली पहचान उजागर की और भीम ने अपने बड़े भाई के चरणों में प्रणाम किया। हनुमान के मार्गदर्शन और आशीर्वाद से भीम सौगंधिकम फूल इकट्ठा करने के लिए आगे बढ़ा।
इस मनमोहक प्रस्तुति में भीम का किरदार सदनम् विपीन चन्द्रं, द्रौपदी का किरदार कलामंडलम श्रीराम और हनुमान का किरदार डॉ. सदनम हरिकुमार ने निभाया। स्वर सदनम ज्योतिष बाबू, चेंडा सदनम रामकृष्णन, मद्दलम सदनम देवदासन, चुट्टी कलामंडलम श्रीजीत और प्रस्तुति सदनम कथकली अकादमी की थी।
खजुराहो के मंदिरों के नाम समय-समय पर परिवर्तित हुए : डॉ.शिवाकांत द्विवेदी
कलाकारों और कलाविदों के मध्य संवाद का लोकप्रिय सत्र कलावार्ता के दूसरे दिन जीवाजी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के रिटायर्ड विभागाध्यक्ष डॉ.शिवाकांत द्विवेदी ने खजुराहो मंदिर सहस्त्राब्दी पूर्ण होने एवं ऐतिहासिक यात्रा पर व्याख्यान दिया। उन्होंने मंदिरों का स्थापत्य, नक्काशी, मिथुन मूर्तियों पर प्रकाश डाला। डॉ.शिवाकांत द्विवेदी ने बताया कि इन मंदिरों के नाम समय—समय पर परिवर्तित होते रहे हैं। ब्रिटिश काल में जो शोध कार्य प्रारंभ हुआ उसमें एफ.सी. मैसी, टी एस बर्ड और एलेक्जैंडर कलिंग्स ने यहां के मंदिरों का सर्वेक्षण किया, नोट्स और ड्राइंग्स भी बनाए। जिसके एल्बम इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में सुरक्षित रखे हुए हैं।
उन्होंने कहा कि खजुराहो के मंदिर के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों की दृष्टि केवल मनोरंजन होती है। जबकि, इन्हें आध्यात्मिक दृष्टिकोण के साथ देखा जाना चाहिए। दैवीय आपदा से सुरक्षित रखने के लिए इनका आंकन हुआ होगा या शैव धर्म के कौल कापलिक संप्रदाय की साधना पद्धति को प्रकाशित करने के लिए हुआ होगा। उन्होंने कहा कि सामंतवादी आदर्शों और व्यवहारों की अभियंजना के लिए भी इनका निर्माण हुआ होगा। उन्होंने कहा कि मेरी दृष्टि से इन मंदिरों का निर्माण सृष्टि की उत्पत्ति की ओर इशारा करती है।
ऊर्जा और उत्साह का पर्याय बन रहा खजुराहो बाल नृत्य महोत्सव का मंच
51वें खजुराहो नृत्य समारोह के एक ओर जहां मुख्य मंच पर देश-विदेश के नृत्य कलाकारों की साधना देखने को मिल रही है, वहीं दूसरी ओर खजुराहो बाल नृत्य महोत्सव के मंच पर बालमन की कल्पना और ऊर्जा से नृत्यप्रेमी प्रभावित हो रहे हैं। खजुराहो बाल नृत्य महोत्सव का तीसरा दिन कथक के नाम रहा। पहली प्रस्तुति कुमारी शुभदा मेड़तिया की थी। उन्होंने सर्वप्रथम राम वंदना की। इसके बाद अपनी कथक के शुद्ध पक्ष को प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने ताल त्रिताल में आमद, थाट, परने, प्रिमलू और तिहाहियां, लड़ी एवं कवित्व शामिल थे। अंत में राग कलावती त्रिताल द्रुत लय में निबद्ध तराने से प्रस्तुति को विराम दिया।
दूसरी प्रस्तुति ग्वालियर की प्रतिभाशाली कथक नृत्यांगना ज्योति तोमर की रही। वे विगत तीन वर्षों से गुरु शिवा नायक जी के सान्निध्य में कथक की शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। ज्योति ने इस प्रतिष्ठित मंच पर अपनी नृत्य साधना को गणेश वंदना, तीनताल, चतुरंग एवं ठुमरी के माध्यम से प्रस्तुत किया।
कलाप्रेमियों के मध्य लोकप्रिय हो रही "नाद" प्रदर्शनी
51वें खजुराहो नृत्य समारोह में पहली बार एक अनूठी प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है, जिसका नाम है "नाद"। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ध्वनि या साउंड। यह ध्वनि कहां से उत्पन्न होती है, जिसे सुनने के बाद आत्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है। यह ध्वनि उत्पन्न होती है वाद्यों या साजों से। जिसका संगीत में महत्वपूर्ण स्थान है। लोक, जनजातीय और शास्त्रीय संगीत में प्रयोग होने वाले वाद्यों को नाद प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया है। यह प्रदर्शनी कलाप्रेमियों के मध्य लोकप्रिय हो रही है, क्योंकि यहाँ कई दुर्लभ वाद्य भी प्रदर्शित किए गए हैं।
इसमें दक्षिणी ओडिसा के परजा समुदाय द्वारा अपने गीतों और नृत्यों के दौरान उपयोग किया जाने वाला वाद्य टमक है। यह धातु एवं चर्मपात्र से निर्मित किया जाता है। वहीं, वायलिन और सेलो के समान वाला उच्च स्वर वाला तार वाद्य वायोला भी प्रदर्शित है। यह वायलिन से बड़ा होता है। इसकी आवाज कम और गहरी होती है, लेकिन सेलो से ऊंची होती है। इसमें चार तार होते हैं। यहां रुपका वाद्य भी प्रदर्शित किया गया है। जो एक द्विमुखी ढोल है, जिसका उपयोग झारखंड प्रदेश में जनजातियों द्वारा पारंपरिक उत्सवों में किया जाता है।
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