Sunday, February 23, 2025

वास्तु शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ है अजयगढ़ का दुर्ग

"बुंदेलखंड की जिस पावन धारा में विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मन्दिर स्थित हैं, उसी भूमि में अजयगढ़ का यह प्राचीन दुर्ग भी है, जो शिल्प कला व पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से किसी भी मामले में खजुराहो से कम नहीं है। इसके बावजूद भी इस अनूठे दुर्ग की घोर उपेक्षा हुई। जिससे मूर्ति चोरों व दफीनाखोरों ने इस  वेशकीमती धरोहर को खोद खोदकर क्षत-विक्षत कर दिया है। अजयगढ़ दुर्ग की बदहाली से चिंतित प्रबुद्धजनों व समाजसेवी संगठनों ने दुर्ग को संरक्षित तथा जीर्णोद्धार कराने की मांग की है"। 


पन्ना से 30 किमी की दूरी पर स्थित यह दुर्ग वास्तु शिल्प की दृष्टि से अनूठा है, इस दुर्ग के रंगमहल का नजारा।  

।। अरुण सिंह ।।

किसी समय चंदेल राजाओं के शक्ति का केंद्र रहा ऐतिहासिक अजयगढ़ का दुर्ग उपेक्षा के चलते खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर विंध्याचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों पर स्थित यह अजेय दुर्ग आज भी लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित इस दुर्ग की वास्तु कला के अवशेषों का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि खजुराहो और कालिंजर के विश्व प्रसिद्ध शिल्प के शिल्पियों के हाथ में इतनी पैनी छैनियां नहीं थी, जितनी कि अजयगढ़ दुर्ग के वास्तुकारों के पास थीं। वास्तव में अजयगढ़ का किला वास्तु शिल्प की दृष्टि से अधिक कलात्मक, अनूठा और बेजोड़ है।

उल्लेखनीय है कि खजुराहो शिल्प में यक्ष यक्षिणी की मिथुन मुद्राओं को पाषाण पर उकेर कर जहां जीवंत रूप प्रदान किया गया है, वहीं अजयगढ़ की शिल्प कला सत्यं शिवम् शिवं सुंदरम की गरिमा से युक्त है। यहां की शिल्प भक्ति और मुक्ति के चरम लक्ष्य को दिग्दर्शित कराने वाली भी है। ऋषि मुनियों की कठोर साधना तथा राजाओं और महाराजाओं के उत्थान एवं पतन के इतिहास को अपने जेहन में समेटे अजयगढ़ दुर्ग का प्राकृतिक सौंदर्य चिरस्थाई है। पर्वत शिखरों से फूटते झरने, नागिन सी बल खाती घाटियां, मनोरम गुफाएं, गहरी खाईयां, विशाल सरोवर व श्याम गौर चट्टानें दर्शकों का मन मोह लेती हैं। यद्यपि इस प्राचीन दुर्ग का लिखित इतिहास नहीं है लेकिन जन श्रुतियां एवं किवदंतियां इसकी प्राचीनता का बखान करते नहीं अघातीं।



बुंदेलखंड की जिस पावन धारा में विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मन्दिर स्थित हैं, उसी भूमि में अजयगढ़ का यह प्राचीन दुर्ग भी है, जो शिल्प कला व पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से किसी भी मामले में खजुराहो से कम नहीं है। इसके बावजूद भी इस अनूठे दुर्ग की घोर उपेक्षा हुई। जिससे मूर्ति चोरों व दफीनाखोरों ने इस  वेशकीमती धरोहर को खोद खोदकर क्षत-विक्षत कर दिया है। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित इस भव्य दुर्ग के निर्माण में पत्थरों का तो प्रयोग किया गया है किंतु उनको जोड़ने में कहीं भी मसाले का प्रयोग नहीं किया गया है।

जानकारों का कहना है कि इसके निर्माण में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों के आधार पर कोणीय संतुलन विधि का प्रयोग किया गया है। प्राकृतिक झंझावातों, प्रकोपों, मानवीय युद्धों के विध्वंसक प्रहारों तथा अभिशापों को झेलने वाला यह दुर्ग अपनी भव्यता, अद्वितीयता तथा और सुदृढ़ता का परिचय दे रहा है। जो निश्चित ही खजुराहो तथा अन्य ऐतिहासिक स्थलों से किसी भी दृष्टिसे कम नहीं है।

धरातल से लगभग 600 फिट की ऊंचाई पर पहाड़ के ऊपर स्थित इस दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। जो अब अधिकांश जर्जर व धराशाई हो गए हैं। मौजूदा समय यहां प्रवेश के लिए सिर्फ दो द्वार बचे हैं, जिनमें एक मुख्य दरवाजा तथा दूसरा तरौनी दरवाजा कहलाता है। उत्तरी द्वार से प्रवेश करने के बाद द्वितीय द्वार के पश्चिम में गंगा-जमुना नामक दो जलकुंड हैं, जिन्हें पर्वत को तराशकर बनाया गया है। विशेष गौरतलब बात यह है कि इन कुंडों के जल का स्वाद अलग-अलग है। पहाड़ी झरनों व श्रोतों से इनमें पानी आता है। कुंड से आगे जाने पर गणेश, कार्तिकेय, जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिलती हैं। यहां पर अनेकों अभिलेख भी मौजूद हैं जो चंदेल कालीन इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। दुर्ग के मध्य में एक तालाब है जो अजयपाल तालाब कहलाता है। तालाब के दूसरे किनारे पर अजयपाल का मंदिर स्थित है।


इस धरोहर के संरक्षण व जीर्णोद्धार की मांग करते अजयगढ़ क्षेत्रीय विकास संघ के संयोजक श्रीराम पाठक व अन्य। 

अजयपाल दुर्ग के दक्षिणी छोर पर चार मंदिर हैं, जो रंगमहल के नाम से जाने जाते हैं। ये मंदिर मौजूदा समय जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं, लेकिन जो भाग शेष बचे हैं वे स्थापत्य कला की दृष्टि से अद्वितीय हैं। दुर्ग में स्थित रंगमहल भारतीय शिल्प कला एवं वास्तुकला का बेजोड़ उदाहरण है। इनके निर्माण में पत्थरों की जुड़ाई हेतु गारे अथवा चूने का प्रयोग नहीं किया गया है। पत्थरों को तराशकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए कोणीय आधार पर संतुलन बनाते हुए पत्थरों को एक के ऊपर एक जमाकर रंगमहल का निर्माण किया गया है। कोणीय आधार पर बनाया गया यह संतुलन आधुनिक वास्तुकारों के लिए खोज व अध्ययन का एक विषय है।

रंगमहल के निर्माण में जितने भी पत्थर लगे हैं उन सभी  पत्थरों के पृष्ठ भाग में प्रतिमाएं एवं बेलबूटे उकेरे गए हैं। मंदिर के उत्तरी पश्चिमी कोने में भूतेश्वर नामक स्थान है। यहां पर जाने के लिए अजयपाल मंदिर से रास्ता है, जहां गुफा के अंदर शिव लिंग है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि यह ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व का दुर्ग जो एक कला तीर्थ भी है, उचित देखरेख के अभाव में खण्डहर होता जा रहा है। 

( पहली क़िस्त )

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