- चंदेल काल में नृत्य कला को भी काफी बढ़ावा मिला। उस काल में मंदिर नृत्य व संगीत साधना के केंद्र हुआ करते थे। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिर भी उस समय नृत्य, संगीत व तंत्र साधना के केंद्र रहे हैं। इन मंदिरों में साधकों को ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की शिक्षा दी जाती थी। फलस्वरूप साधक कामवासना का अतिक्रमण कर आध्यात्म के रहस्यों का साक्षात्कार करने में सफल होते थे।
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अजयगढ़ दुर्ग का रंगमहल जहाँ साधक करते थे नृत्य और संगीत की साधना। |
।। अरुण सिंह ।।
पन्ना जिले का अजयगढ़ दुर्ग सैकड़ों वर्ष पूर्व चंदेल शासकों की शक्ति का केंद्र रहा है। ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग को अजेय कहा जाता था। ऐतिहासिक महत्व के इस प्राचीन दुर्गा की स्थापत्य व मूर्तिकला मंत्र मुक्त कर देने वाली है। यहां की मूर्ति कला में संगीत व नृत्य के अनेक दृश्यों का चित्रण हुआ है । सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण रहे अजयगढ़ दुर्ग में उत्कीर्ण प्रतिमाओं को देखने से यह प्रतीत होता है कि तत्कालीन शासकों की संगीत व नृत्यकला में गहरी अभिरुचि थी।
ऐसा कहा जाता है कि विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिरों का निर्माण अजयगढ़ दुर्ग के बाद हुआ है। चंदेल काल को कालिंजर एवं अजयगढ़ इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। क्योंकि इसी काल में इन दुर्गों को राजनैतिक, सामरिक एवं सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई। उस समय संगीत व मूर्ति कला को काफी महत्व दिया जाता था। स्त्रियों की भी संगीत साधना में गहरी अभिरुचि थी तथा तत्कालीन समाज उनके इस स्वाभाविक गतिविधि में बाधक नहीं था। स्त्रियां अपनी इच्छानुसार किसी भी ललित कला का चयन कर सकती थीं। यही कारण है कि चंदेल काल में संगीत व नृत्य कला ने अप्रतिम शिखर की ऊंचाइयों को हासिल किया।
अजयगढ़ व कालिंजर दोनों ही दुर्गों की मूर्ति कला में संगीत के वाद्य यंत्रों को बजाते हुए बड़ा ही मनोहारी अंकन मिलता है। अजयगढ़ के रंग महल मंदिर समूह के द्वितीय मन्दिर के मंडप में बांसुरी बजाते हुए एक सुर सुंदरी की अत्यधिक कमनीय मूर्ति है। वह दो हाथों में बांसुरी पकडे हुए बजाते दिखाई गई है। इस प्रकार की बांसुरी वादिकाओं की मूर्तियां अन्य मंदिरों के मंडपों में भी प्राप्त होती हैं। कालिंजर के नीलकंठ मंदिर के मंडप में बांसुरी वादिका का सुंदर अंकन है। पुरुषों के द्वारा भी बांसुरी बजाने का शिल्पांकन कालिंजर और अजयगढ़ में मिलता है। बांसुरी वादन के दृश्यों की बहुलता इस बात का द्योतक है कि तत्कालीन युग में बांसुरी सर्वाधिक लोकप्रिय वाद्य था। बांसुरी के अलावा ढोलक, मंजीरा, वीणा, डमरू, शंख, झालर आदि वाद्य यत्रों का भी उसे काल में बहुतायत से प्रयोग होता था।
चंदेल काल में नृत्य कला को भी काफी बढ़ावा मिला। कालिंजर व अजयगढ़ के मंदिरों में नृत्य के सुंदर दृश्यों का शिल्पांकन किया गया है। कालिंजर में नीलकंठ मंदिर के प्रवेश द्वार पर पट्टिका में नृत्य का बड़ा सुंदर दृश्य उकेरा गया है। उस काल में मंदिर नृत्य व संगीत साधना के केंद्र हुआ करते थे। चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिर भी उस समय नृत्य, संगीत व तंत्र साधना के केंद्र रहे हैं। इन मंदिरों में साधकों को ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की शिक्षा दी जाती थी। फलस्वरूप साधक कामवासना का अतिक्रमण कर आध्यात्म के रहस्यों का साक्षात्कार करने में सफल होते थे।
नृत्य, संगीत व तंत्र साधना के सूत्र व अनगिनत रहस्य आज भी अजयगढ़ के प्राचीन दुर्ग व खजुराहो के मंदिरों में छिपे हैं। इन रहस्यों को जानने व समझने के लिए वही अंतर्दृष्टि चाहिए, जो उस काल के रहस्यदर्शियों व मनीषियों के पास थी। जानकारों कहना है कि खजुराहो के मंदिर व अजयगढ़ का दुर्ग सिर्फ पर्यटकों के घूमने व भ्रमण करने की जगह नहीं है, बल्कि यहां की आबोहवा में गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियां भी होती हैं। पन्ना जिले के अजयगढ़ का यह प्राचीन दुर्ग अभी भी उपेक्षित है। इस प्राचीन धरोहर के संरक्षण व उसे उसके मूल स्वरूप में लाने के लिए शीघ्र ही ठोस और कारगर पहल जरूरी है। ( दूसरी क़िस्त )
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