- बीते 10 दिनों में तीन बच्चों की हो चुकी मौत, कई बीमार
- कैसे हुई इन मासूमों की मौत, यह रहस्य अभी बरकरार
कब्रिस्तान के भीतर स्थित पुराना कुआं जिसका पानी चांदमारी बस्ती के लोग पीते हैं। |
।। अरुण सिंह ।।
पन्ना। आमतौर पर मरघट और कब्रिस्तान शहर, गांव व बस्ती के बाहर होते हैं, जहां लोग तभी जाते हैं जब किसी की मौत हो जाती है। लेकिन मध्यप्रदेश में पन्ना शहर के निकट एक ऐसी बस्ती है, जहां की महिलाएं व बच्चे रोजाना कई बार कब्रिस्तान जाते हैं। इसकी खास वजह कब्रिस्तान में स्थित एक प्राचीन कुआं है। जो 60-70 घरों वाली इस बस्ती के लोगों का वर्षों से सहारा बना हुआ है।
उल्लेखनीय है कि जिला मुख्यालय से लगी हुई ग्राम पंचायत पुरुषोत्तमपुर की आदिवासी बस्ती चांदमारी दो दिनों से चर्चा में है। इस बस्ती में बीते 10 दिनों के दरमियान किसी रहस्यमय बीमारी के चलते 3 बच्चों की संदिग्ध मौत हो चुकी है तथा कई बच्चे बीमार हैं। बच्चों की मौत क्यों और किस बीमारी के कारण हुई यह रहस्य अभी बरकरार है। बच्चों की हुई असमय मौत से बस्ती के गरीब और भोले भाले आदिवासी डरे व सहमे हुए हैं।
आदिवासी बस्ती की महिलाएं अपनी व्यथा सुनाते हुए। |
बच्चों की हुई मौत का मामला जब प्रकाश में आया तो प्रशासन भी सक्रिय हुआ। सोमवार 5 जुलाई को चिकित्सकों व अधिकारियों की टीम यहां के हालातों का जायजा लेने पहुंची। पन्ना शहर के रानीगंज मोहल्ले से लगभग 1 किलोमीटर दूर यह चांदमारी बस्ती है, जिसके नीचे लोकपाल सागर तालाब व ऊपर की तरफ पहाड़ है। बस्ती के आसपास खेती योग्य जमीन नहीं है। जाहिर है कि यहां के वाशिंदे मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पिछले 4 दशक से भी अधिक समय से आदिवासी यहां रह रहे हैं, लेकिन मूलभूत सुविधा के नाम पर उनके हिस्से में कुछ भी नहीं आया।
चांदमारी बस्ती में पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं है, यह यहां की सबसे विकट समस्या है। पानी के लिए बस्ती के लोग कब्रिस्तान के भीतर स्थित कुआं में जाते हैं और इसी कुआं का पानी पीने के लिए उपयोग करते हैं। बस्ती के निकट ही एक छोटी सी तलैया है, जिसमें मटमैला पानी भरा हुआ है। यहीं बस्ती की महिलाएं व बच्चे नहाते धोते हैं। इस बस्ती तक पहुंचने के लिए दोनों तरफ झाड़ियों से घिरा कच्चा मार्ग है, हल्की बारिश होने पर इस मार्ग पर वाहन चलाना तो दूर पैदल चलना तक मुश्किल हो जाता है। इन हालातों और मुसीबतों के बीच रहने वाले आदिवासियों के बच्चे यदि किसी जानलेवा संक्रमण के शिकार होकर असमय काल कवलित हो गए तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो यह है की बस्ती के लोग इन विकट परिस्थितियों में भी कैसे जीवन गुजार रहे हैं।
शासन व प्रशासन की संवेदनहीनता का प्रमाण है यह बस्ती
कब्रिस्तान के कुआं से पीने का पानी लाने के लिए जाते बस्ती के बच्चे। |
शहर के निकट ढाई-तीन सौ लोग मूलभूत और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में नारकीय जीवन जी रहे हैं, फिर भी जिम्मेदार अधिकारियों तथा जन कल्याण करने का ढिंढोरा पीटने वाले जनप्रतिनिधियों ने इनकी सुध नहीं ली। जब तीन बच्चे मर गए तब प्रशासन जागा और खानापूर्ति करने के लिए टीम पहुंच गई। इस टीम ने बस्ती में जाकर क्या देखा और क्या किया ? बताया गया है कि बीमार बच्चों तथा उनके परिजनों का कोरोना टेस्ट कराया गया है, जिनकी रिपोर्ट नेगेटिव आई है। अब इन अधिकारियों को कौन बताए कि आदिवासियों की सबसे बड़ी समस्या गरीबी, बेरोजगारी और पीने का पानी है। इन्हें कोरोना से ज्यादा डर भूख और प्यास से लगता है। लेकिन अधिकारियों को यह नजर नहीं आता, क्योंकि उनके दिमाग में सिर्फ कोरोना घुसा हुआ है। कोरोना की जांच हो गई और रिपोर्ट नेगेटिव आई यानी कि सब कुछ ठीक है। रही बच्चों की मौत तो इस मामले में वही घिसा पिटा जवाब। जांच कराई जा रही है रिपोर्ट आने पर पता चलेगा की मौत कैसे हुई।
कुपोषित और टीबी से पीड़ित था एक बच्चा
आदिवासियों की बस्ती में जिन तीन बच्चों की मौत हुई है उनमें लगभग 4 वर्ष का बालक शिवा आदिवासी भी है। जिला कार्यक्रम अधिकारी महिला एवं बाल विकास ऊदल सिंह ने बताया कि यह बच्चा कुपोषित था, जो एनआरसी में भर्ती रह चुका है। आपने बताया कि इसे टीबी भी हो गया था। चांदमारी बस्ती में ऐसे कई बच्चे हैं जिन्हें जरूरी पोषण नहीं मिल पा रहा, जिससे वे असामान्य हैं। जिला कार्यक्रम अधिकारी के मुताबिक 7-8 बच्चों की आंखें आड़ी-तिरछी हैं। चिकित्सकों का कहना है कि ऐसी स्थिति विटामिन ए की कमी से भी निर्मित हो सकती है। इन बच्चों के माता-पिता गरीब मजदूर हैं, जिनकी हैसियत बाजार से सब्जी भाजी तक खरीदने कि नहीं है। जाहिर है बच्चे पोषण की कमी और दूषित पानी के कारण संक्रमित हो रहे हैं। इस समस्या के स्थाई निदान हेतु प्रशासन को प्रभावी कदम उठाना चाहिए।
जिला अस्पताल जाने से कतराते हैं आदिवासी
करौंदी बाई आदिवासी जिसने बच्चे के इलाज में एक हजार रुपये खर्च किये। |
बीमार पडऩे पर आदिवासी जिला चिकित्सालय जाने से कतराते हैं। इसकी वजह पूछे जाने पर रामप्यारी बाई व राजकली ने बताया कि सरकारी अस्पताल इसलिए नहीं जाते क्योंकि वहां कोई हमारी सुनता ही नहीं है। बच्चा जब बीमार हुआ था तो कल्लू डॉक्टर को दिखाकर दवाई ली थी। कई दिन इलाज चला लेकिन बचा नहीं। अपने कच्चे घर के बाहर बच्चे को गोद में लिए रोटी सेक रही करौंदी बाई ने बताया कि उसका आदमी ट्रैक्टर चलाता है। बच्चे के पेट में फोड़ा हो गया था, जिसका इलाज प्राइवेट डॉक्टर से कराया है। पूरे एक हजार रुपये खर्च हुए हैं। करौंदी बाई ने कहा कि हमारी सबसे बड़ी समस्या पीने के पानी की है, बारहों महीने हमें पानी के लिए कब्रिस्तान वाले कुआं में जाना पड़ता है।
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