Friday, October 25, 2024

अब खोटलइया कहीं क्यों नजर नहीं आती ?


            

 ।। बाबूलाल दाहिया ।।

खोटलइया ऐसा बेल वाला पौधा था, जो अपने आप खेत या घर के पछीत की बाड़ी में उग कर अपनी शानदार कढ़ी या मसलहा खिलाता था। इसके कढ़ी को बघेल खण्ड में (चिरपरहा) कहा जाता था। क्योंकि उसमें पर्याप्त मिर्चा का बघार होता था। 

इधर लगातार कई वर्षों तक सूखा पड़ने और घरों की बस्ती बढ़ कर हर जगह पक्के मकान बन जाने के कारण समस्त बाड़ियां ही समाप्त हो गईं। यही कारण है कि नैसर्गिक ढंग से उग कर कढ़ी खिलाने वाला यह बेलयुक्त पौधा अब कहीं भी नही दिखता। अकेले खोटलइया भर नही और भी इस तरह के अनेक नैसर्गिक ढंग से उगने वाले पौधे समाप्त होते जा रहे हैं। अब तो घरों के आसपास पच गुडडू और गिलोय के बेल भी कम ही दिख रहे हैं।

प्राचीन समय में जब आज जैसी चिकित्सा सुबिधा नही थी और क्वार के महीने में  हर वर्ष मलेरिया बुखार के प्रकोप के कारण घर-घर में खाट दस जातीं थीं तब उसकी दवा पचगुड्डू ही हुआ करती थी। बस उसके कोमल फलों को भून नमक की डली के साथ खा लेने से बुखार समाप्त हो जाती।  इसलिए इन दोनों का महत्व भी था। क्योकि उस समय के वैद्य कुछ बीमारियों में उपवास भी कराते थे। अस्तु पथ्य लेने के पश्चात अधिक भूँख लगने के लिए खोटलइया की कढ़ी ही खिलाने की सलाह देते थे। 



मजे की बात यह है कि यह खोटलइया और पचगुड्डू मध्य अगस्त से अक्टूबर तक तभी फल देतीं थीं, जब उनकी कढ़ी और औषधि के लिए आवश्यकता हुआ करती थी। बाद में अगहन माह में इसके फल रूढ़ हो पक जाते और पौधे भी सूखने लगते थे। पर अब जबकि बाड़ ही नही बची हैं और हर जगह कंक्रीट वाले भवन बन गए हैं तो बेचारी यह दोनों कहां उगें ? नई पीढ़ी तो इसके अवदान को आंगे पहचान ही न पाएगी कि कभी यह भी घर के आस-पास उगने वाली एक बनस्पति खोटलइया भी थी और इसकी कढ़ी बनती थी।

फिर भी जो इसके महत्व को समझते हैं, तो उन्हें चाहिए कि इसे संरक्षित करें। क्योकि कढ़ी तो अभी भी खाई जा सकती है। इसलिए करेला, खीरा, बरवटी वाले थालो में ही इसके दानों को उगा सकते हैं। वैसे यह पौधा मनुष्य की कभी भी गुलामी स्वीकार नही की, हमेशा स्वतन्त्र ही रहा।

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