।। बाबूलाल दाहिया ।।
ज्वार हजारों साल से गरीबों का भोजन रही है। यदि एक बार अषाढ़ में खेत जुत गया और फिर दुबारा बारिस हो जाने व खेत में कुछ नमी संचित हो जाने के पश्चात उसमें ज्वार बो दी जाती तो कम बारिस के बाद भी उसके पकने में कोई संदेह नही रहता था। हां अच्छी फसल पाने के लिए एक बार निराई करना अवश्य जरूरी होता था।
ज्वार अकेले नही होती थी, बल्कि अपनी मूँग, उड़द, अरहर, तिल, अमारी, भिंडी, बरवटी काकुन आदि 6-7 साथिनों के साथ उगती थी। वह खुद डेढ़ - दो फीट के गैप पर बोई जाती और पौधा 7-8 फीट ऊंचा होता था तो उसके इस नीचे और ऊपर के गैप को भरने के लिए किसान चाहे जो फसल उगाले। फिर अगहन से फागुन तक ज्वार की रोटी और दलिया तो खाय ही ? साथ ही दाल, तेल, तरकारी, मुगोड़े, बरे, रस्सी, गेरमा आदि सभी का मुकम्मल प्रबंध भी उसी ज्वार के खेत से होता रहे।
शायद इन्ही गुणों के कारण उसे मालवा और निमाड़ क्षेत्र में माता का दर्जा प्राप्त था एवं लोग वहां अपने सम्बोधन में ( ज्वार माता ) कहकर पुकारते थे। हमारे विध्य क्षेत्र में रियासती जमाने में बकायदे उसकी तकवारी हेतु दशहरा से दीवाली तक 28 दिन की छुट्टी ही हुआ करती थी, जिसे (फसली छुट्टी) कहा जाता था। हम लोग उस छुट्टी का भरपूर लुफ्त उठाते। खेत में गड़े मचान पर चढ़ गोफने से पक्षियों को उड़ाते और ज्वार के भुट्टों को भून कर तिल के साथ खूब चावते भी। उस भूने हुए भुट्टे के गीले दाने को हमारे क्षेत्र में (गादा ) कहा जाता था।
यही कारण था कि उस जमाने के छात्रों की एक ब्यौहारिक जीवन की पढ़ाई भी पूरी हो जाती थी। उसमें वह ज्वार चुगने आये कई तरह के पक्षी, कौआ, दो तीन तरह के तोता, गलरी, पेगा गौरैया, पंडुक ,बुलबुल नील कण्ठ आदि सभी के गुण धर्मो की जानकारी हासिल कर लेते थे। बालक तकवारी करते - करते ही जान लेता था कि इनमें से कौन पक्षी ज्वार के दाने चुगने आते हैं और कौन इन 6-7 प्रकार के अनाजों में लगने वाले अलग - अलग तरह के कीटों पतिंगों को खाने ? साथ ही यह भी कि ज्वार के साथ उगे अन्य अनाजों में कौंन- कौंन से कीट लगते हैं।
उन छात्रों को घर से खेत तक आते जाते रास्ते में दिखने वाले सभी प्रकार के घास चारे और अनाजों की भी मुकम्मल जानकारी हो जाती थी, जिनमें पचीसों प्रकार की तो धान की ही रंग बिरंगी किस्में होती थीं। अकेले ज्वार की ही चरकी, दो दनिया, लाटा गुरदी, वैदरा, अरहरा, झलरी बामनी, लाल दुदनिया, सफेद दुदनिया आदि 10-12 किस्में होती थीं, जिनके गुण धर्मो को वह सहजता से जान जाते थे कि इनमें कौन लावा, घुघरी, घाठ के लिए उपयुक्त हैं और कौन रोटी अथबा गादा चाबने के लिए ? किन्तु तीन वर्ष पहले जब मैंने मालवा निमाड़ होकर गुजरात तक की हजारों किलो मीटर की यात्रा की तो वहां भी मुझे कही भी रास्ते में अब ज्वार माता के दीदार नही हुए। इसलिए अब वर्तमान छात्रों को अगर पढ़ कर यह जानना है कि कौवे का रंग कैसा होता है ? तो उसे बीसों बार रटना पड़ेगा कि "कौवे का रंग काला होता है।" एक तरफ तो छात्र बहुत बड़ा किताबी ज्ञान हासिल करते जा रहे हैं, दूसरी तरफ पेड़ पौधे वनस्पतियों और जीव जंतुओं के अंतर सम्बन्धों वाले ज्ञान में वे फिसड्डी ही रहे आते हैं। इसीलिए पर्यावरण और जैव विविधता वाले ब्यौहारिक ज्ञान से उनकी दूरी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
कितना अच्छा होता कि यह दोनों प्रकार के ज्ञान यदि साथ - साथ चलते तो शायद इस पर्यावरण और जैव विविधता की अनदेखी व दुर्दशा इतनी बदतर न होती ?
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Absolutely True
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