पहले इसी तरह दीपावली के दिन यादव समाज के कलाकार गाँव में घर - घर दिवाली जगाने आते थे। |
यदि त्यौहारों को देखा जाय तो भले ही दीपावली या होली के साथ अनेक मिथक या परम्पराएं जुड़ गई हों, पर सबके मूल में खेती और उसकी नई फसल आने की खुशी ही है। क्योकि दीपावली और होली ऐसे त्यौहार हैं कि दोनों में किसानों के घर में नई फसल आ जाती हैं। इधर होली दीवाली दोनों त्यौहारों में मौसम भी समशीतोष्ण होता है। ऐसे अवसर में हमारी खेती किसानी से जुड़े गांव के शिल्पियों तथा सभी ग्रामवासियों का खुशियां मनाना स्वाभाविक है। फिर हमारी कृषि संस्कृति में उन्हें खा पीकर खुशियां मनाने के लिए ( पियनी ) के रूप में त्यौहारी देने की भी परम्परा रही है।
हमने अनेक शिल्पियों के रीति रिवाज परम्पराओं व उनके लोकगीतों का अध्ययन किया है। पर इसी निष्कर्ष में पहुंचे हैं कि जिन जातियों के व्यवसाय कुछ कम कष्ट साध्य थे उनके सभी के जातीय लोक गीत हैं। पर जिनके काम अधिक मेहनत वाले थे उनके कोई (जातीय लोकगीत) नही हैं। उदाहरण के लिए लौह एवं काष्ठ शिल्पी हमारी खेती के प्रमुख आधार थे पर उनके कोई अपने जातीय लोकगीत नही पाए जाते। कारण शायद यही रहा होगा कि वे काम करते - करते इतना थक जाते रहे होंगे कि रात्रि में भोजन के पश्चात उन्हें सीधे खाट ही दिखती रही होगी।
दूसरी तरफ यादव एवं पाल ऐसा समुदाय था जिनका प्राचीन जातीय कर्म पशु चारण से जुड़ा था। अस्तु उसके पास पर्याप्त गान गम्मत के अवसर थे। जंगल में भी गाय या भेंड़ बकरी चरते रहते तब भी उनके जबाब सवाल में बिरहा गीत जंगल में गूंजते रहते। यही कारण है कि उनके जातीय गीत सर्वाधिक पाए जाते हैं। वे गीत अधिकांश राधाकृष्ण के प्रेम प्रसंगों अथवा पशुचारण जैसे परिवेश से जुड़े ही होते हैं।
प्राचीन समय में दीपावली के दिन यादव समाज के कलाकार गाँव में घर - घर दिवाली जगाने आते थे। वे एक जालीदार भेड़ के बालों से बुना गया वस्त्र पहनते और विरहा गीत गाकर नृत्य करते जिसे (डोर) कहा जाता था। पर कुछ समय से आना बन्द कर दिए थे। अब पिछले दो वर्ष से श्याम सुन्दर पाल और नगड़िया बादक बैजनाथ चौधरी पुनः आने लगे हैं। उनके उस देवारी जगाने के बदले में हर कृषक परिवार उन्हें 1 से 2 किलो धान देते हैं। एक गीत तो पिछले वर्ष का अब तक याद है कि -
ऊमर फरी कठूमर,
घउचन फरी खजूर।
कउन कउन फर खइहा ददऊ,
गउअय गईं बड़ी दूर।।
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