Monday, July 17, 2017

पन्ना से कई देश सीख रहे बाघ संरक्षण का पाठ

  •   दुनिया में जो कहीं संभव न हो सका वह पन्ना में हुआ साकार
  •   अभिनव प्रयोग की सफलता का कई देश कर रहे हैं अध्ययन
  •   बाघों को फिर से आबाद करने कम्बोडिया ने अपनाया पन्ना मॉडल


 नर बाघ पी-112 के साथ दुनिया की पहली पालतू बाघिन टी-4 जो जंगली बनी। (फाइल फोटो)

अरुण सिंह,पन्ना, 16 जुलाई। म.प्र. का पन्ना टाईगर रिजर्व दुनियाभर के वन्य जीव प्रेमियों तथा वन अधिकारियों के लिये एक तीर्थ स्थल बन चुका है। देश व दुनिया में आज तक जो कहीं संभव नहीं हो सका वह अभिनव और अनूठा प्रयोग पन्ना में साकार हुआ है। अचंभित कर देने वाली इस कामयाबी को देखने, समझने और अध्ययन करने के लिये कई देशों के प्रतिनिधि निरन्तर पन्ना टाईगर रिजर्व के दौरे पर आ रहे हैं। यहां की उल्लेखनीय सफलता से प्रभावित होकर अनेकों देशों ने पन्ना की ही तर्ज पर अपने यहां भी बाघों के उजड़ चुके संसार को फिर से आबाद करने में रूचि दिखाई है। इस दिशा में कम्बोडिया ने तो पन्ना मॉडल पर काम भी शुरू कर दिया है।
उल्लेखनीय है कि सदियों से बाघों का प्राकृतिक रहवास रहा पन्ना टाईगर रिजर्व का जंगल वर्ष 2009 में बाघ विहीन हो गया था। बाघों की उजड़ चुकी दुनिया को यहां पर फिर से आबाद करने के लिये पन्ना टाईगर रिजर्व में बाघ पुनस्र्थापना योजना शुरू की गई। जिसके तहत कान्हा और बान्धवगढ़ से चार बाघिन तथा पेंच टाईगर रिजर्व से एक नर बाघ पन्ना लाया गया। टी-3 नाम वाला यह नर बाघ 6 नवम्बर 2009 को पन्ना पहुँचा और तीन वर्ष की अल्प अवधि में ही इस बाघ के संसर्ग से 17 शावकों का जन्म हुआ, परिणामस्वरूप यह बाघ पन्ना टाईगर रिजर्व का सरताज बन गया। पेंच के बाघ का आबाद हुआ यह परिवार निरन्तर विस्तार ले रहा है तथा अब तक यहां पर 55 से भी अधिक बाघ शावकों का जन्म हो चुका है। यह बेमिशाल कामयाबी पन्ना टाईगर रिजर्व के तत्कालीन क्षेत्र संचालक आर.श्री निवास मूर्ति के जुनून, बेहतर प्रबन्धन व अचूक सुरक्षा उपायों के चलते मिली है। आने वाले समय में भी यह व्यवस्था यदि कायम रही और पन्ना टाईगर रिजर्व के वजूद से किसी तरह की कोई छेडख़ानी नहीं हुई तो पन्ना सिर्फ हीरों के लिये ही नहीं अपितु बाघों की धरती के नाम से भी जाना जायेगा।

अनाथ पालतू दो बाघिनें बनी जंगली


पन्ना टाईगर रिजर्व में एक ऐसा दुस्साहसिक प्रयोग भी हुआ, जिसके सफल होने की दूर-दूर तक कहीं कोई संभावनायें नजर नहीं आ रही थीं। लेकिन आर. श्री निवास मूर्ति जैसे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले वन अधिकारी के जुनून और जज्बे ने वह कर दिखाया जो इसके पूर्व कहीं नहीं हुआ। कान्हा टाईगर रिजर्व से लाई गई दो अनाथ पालतू बाघिनों को यहां पर न सिर्फ जंगली बनाया गया बल्कि उन्होंने वंशवृद्धि कर एक नया इतिहास भी रचा। किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि अनाथ पालतू बाघिनें जंगली बनकर शावकों को जन्म देंगी। लेकिन यह चमत्कार पन्ना टाईगर रिजर्व में घटित हुआ, जिसे देखने व समझने को दुनियाभर के लोग उत्सुक हुये हैं। पालतू बाघों को जंगली बनाने का प्रयोग सफल होने से एक नया मार्ग प्रशस्त हुआ है। अब शक्ति और शौर्य के प्रतीक इस शानदार वन्य जीव को विलुप्त होने से बचाने में आसानी होगी।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पन्ना की हुई सराहना




पन्ना में बाघ पुनस्र्थापना योजना को मिली उल्लेखनीय सफलता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई है। वर्ष 2012 में जीटीआई की टीम ने पन्ना टाईगर रिजर्व का दौरा कर यहां की कामयाबी को न सिर्फ सराहा बल्कि बाघ संरक्षण के मामले में पन्ना को रोल मॉडल के रूप में चिह्नित किया। विश्व प्रकृति निधि के अध्यक्ष ने भी पन्ना मॉडल की सराहना करते हुये कहा कि पिटशवर्ग(रूस) में पुतिन द्वारा 2022 के लिये जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है, उसे हासिल करने में पन्ना मॉडल मददगार साबित होगा। रूप के वन अधिकारी वर्ष 2013 से बाघ संरक्षण की तकनीक सीखने निरन्तर पन्ना आ रहे हैं। दुनिया के 13 देशों से आये प्रतिनिधियों की दिल्ली में आयोजित बैठक में आर. श्री निवास मूर्ति ने पन्ना की बाघ पुनस्र्थापना योजना व वंशवृद्धि पर केन्द्रित अध्ययन रिपोर्ट च्जन समर्थन से बाघ संरक्षण मॉडलज् का प्रजेन्टेशन दिया। भारत के प्रशिक्षु वन अधिकारियों के लिये तो पन्ना तीर्थ स्थल बन चुका है। प्रशिक्षु वन अधिकारी यहां आकर बाघ संरक्षण का पाठ सीखते हैं।

कम्बोडिया जायेंगे भारत के बाघ विशेषज्ञ




पन्ना बाघ पुनस्र्थापना योजना की सफलता से प्रेरित होकर डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की मदद से कम्बोडिया के रिजर्व वन क्षेत्रों में बाघ पुनस्र्थापना की योजना बनाई गई है। वष्ज्र्ञ 2007 के पूर्व तक यहां के जंगल में बाघ मौजूद थे, नवम्बर 2007 में यहां अंतिम बाघ देखा गया था। बाघों के लिये अनुकूल कम्बोडिया के वन क्षेत्र में बाघों को पुनस्र्थापित करने के लिये पन्ना मॉडल का अनुकरण किया जा रहा है। पन्ना के अनुभवों को जानने व समझने के लिये भारत से विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया है जो 25 सितम्बर 2017 को आयोजित होने वाली मीटिंग में अपने ज्ञान व अनुभवों को वहां पर साझा करेंगे।

दुनिया सीख रही और हम डुबाने को तत्पर


राज्य वन्य प्राणी बोर्ड के पूर्व सदस्य हनुमंत सिंह का कहना है कि पन्ना बाघ पुनस्र्थापना योजना की सफलता से सीख लेकर दुनिया के कई देश बाघों के संरक्षण पर विशेष रूचि ले रहे हैं, जबकि हमारी सरकार बाघों के भरे पूरे संसार को उजाडऩे पर तुली है। श्री सिंह का कहना है कि पन्ना टाईगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में प्रस्तावित ढोढऩ बांध के बनने से 40 वर्ग किमी. से भी अधिक का घना जंगल जहां डूब जायेगा, वहीं बाघों व दुर्लभ प्रजाति के गिद्धों का रहवास भी नष्ट होगा। ऐसा होने पर दुनिया के लिये मॉडल बन चुके पन्ना टाईगर रिजर्व का वजूद संकट में पड़ जायेगा। उन्होंने केन्द्र सरकार से इस योजना पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है ताकि पन्ना के बाघों का संसार आबाद रहे।
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Tuesday, July 11, 2017

धसक रही है अजयगढ़ की ऐतिहासिक घाटी

  •   अनदेखी के चलते संकट में है घाटी का वजूद  
  •   जल निकासी की प्राचीन व्यवस्थायें अवरूद्ध


अजयगढ़ घाटी का विहंगम दृश्य। फोटो - अरुण सिंह 

 अरुण सिंह,पन्ना। राजाशाही जमाने की गौरव गाथा को समेटे मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की ऐतिहासिक अजयगढ़ घाटी अब बदहाली का शिकार है। घाटी में जल निकासी के लिए जो व्यवस्थायें की गई थीं। अनदेखी व समुचित देख-रेख के अभाव में वे ध्वस्त हो चुकी हैं, फ लस्वरूप घाटी का तेजी के साथ क्षरण हो रहा है। इस घुमावदार आकर्षक घाटी में पहाड़ से मिट्टी व चट्टानें धसककर सड़क मार्ग पर आ रही हैं, जिससे हर समय दुर्घटनाओं की आशंका बनी रहती है।
उल्लेखनीय है कि लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तत्कालीन पन्ना नरेश महाराजा रूद्रप्रताप सिंह द्वारा इस ऐतिहासिक घाटी का निर्माण कराया गया था। बताया जाता है कि पन्ना के सुप्रसिद्ध श्री बल्देव जी मंदिर व अजयगढ़ घाटी का निर्माण एक साथ हुआ था और निर्माण में खर्च भी बराबर आया था। राजाशाही खत्म होने के कई दशकों बाद तक भी इस मनोरम घाटी की खूबसूरती देखते ही बनती थी। घने जंगल व वनाच्छादित पहाडिय़ों के बीच से निकली इस घुमावदार घाटी में जल निकासी के लिए इतनी शानदार व्यवस्थायें की गई थीं कि बारिश का पानी कहां चला जाता था पता ही नहीं चलता था। सड़क मार्ग के दोनों तरफ  अच्छी स्लोप वाली मजबूत नालियों के द्वारा बारिश का पूरा पानी घाटी से निकलकर पहाड़ी नालों में मिल जाता था, फलस्वरूप यह घाटी निर्माण के सौ वर्ष बाद भी मजबूती के साथ विद्यमान है।

क्षरण के चलते जीर्ण-शीर्ण सुरक्षा दीवाल


क्षरण के चलते जीर्ण-शीर्ण हो चुकी  सुरक्षा दीवाल का द्रश्य। 

इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हम अपनी प्राचीन धरोहरों को बचाने व उनका संरक्षण करने के बजाय उनकी अनदेखी कर रहे हैं। यह प्राचीन धरोहर भी उपेक्षा और अनदेखी का शिकार है, जिससे इसका वजूद संकट में पड़ गया है। घाटी के मार्ग में निर्मित प्राचीन नालियां मलबे से पट चुकी हैं। क्षरण के कारण पहाड़ों की मिट्टी व पत्थर नालियों में भर गये हैं, जिससे जल निकासी की पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई हैं। इस लापरवाही का यह परिणाम  है कि पहाड़ों का जहां तेजी से क्षरण होने लगा है, वहीं घाटी में निर्मित सुरक्षा दीवालें भी नष्ट हो रही हैं। पहाड़ों के क्षरण का यह आलम है कि ऊंचाई से बड़ी-बड़ी चट्टानें लुड़क कर सड़क मार्ग पर आ जाती हैं। नतीजतन   कभी भी भयावह हादसा घटित हो सकता है। मालूम हो कि पन्ना जिले को पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश के बांदा जिले से जोडऩे वाला यह प्रमुख मार्ग हैं। इस मार्ग पर चौबीसों घंटे आवागमन होता है, फि र भी घाटी के जीर्णोद्धार व देख-रेख में शासन-प्रशासन द्वारा कोई रूचि नहीं ली जाती, जिससे घाटी जीर्ण-शीर्ण हो रही है। इस मार्ग से जब भी कोई पहली बार निकलता है, तो यहां की प्राकृतिक मनोरम छटा व घाटी की निर्माण शैली को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता है।

हैरतअंगेज है घाटी के निर्माण की कहानी 


इस मनोरम घाटी के निर्माण की कहानी भी हैरतअंगेज और अविश्वनीय है। बताया जाता है कि तकनीकी कौशल से परिपूर्ण इस घुमावदार घाटी के निर्माण में खच्चरों की भूमिका सबसे अहम रही है। घाटी के मार्ग का निर्धारण खच्चरों के द्वारा ही किया गया था। तत्कालीन पन्ना नरेश महाराजा रूद्रप्रताप सिंह ने खच्चरों की पीठ में चूने की बोरियां लदवाकर बोरियों में छेद करके उन्हें इस पहाड़ पर छुड़वा दिया था। खच्चर घने जंगल से होकर जिस मार्ग से गए, चूने की लाइन खिंचती चली गई और इसी नक्शे के आधार पर ही अजयगढ़ की घाटी का निर्माण हुआ।

निर्माण की तकनीक है बेमिशाल 


अजयगढ़ घाटी के निर्माण की तकनीक को देखकर बड़े-बड़े इंजीनियर भी हैरत में पड़ जाते हैं। अत्यधिक ऊंचाई व घुमावदार मार्ग होने के बावजूद भी इस खतरनाक दिखने वाली घाटी में बहुत ही कम सड़क दुर्घटनायें होती हैं। जबकि पन्ना-छतरपुर मार्ग वाली मड़ला घाटी, जिसमें इतने घुमाव व ऊंचाई नहीं है फि र भी इस घाटी में आये दिन सड़क हादसे होते हैं। तकनीकी जानकारों का कहना है कि यह घाटी के निर्माण कला का ही परिणाम है कि अजयगढ़ घाटी में सड़क हादसे न के बराबर होते हैं।
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Saturday, July 8, 2017

पन्ना टाइगर रिजर्व में तितलियों का अद्भुत संसार

  • सौ से भी अधिक प्रजातियों की हो चुकी है पहचान 
  • प्रदूषण के प्रति होती हैं अत्यधिक संवेदनशील 



अरुण सिंह, पन्ना। जैव विविधता एवं दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व के कोर व बफर क्षेत्र के जंगल में खूबसूरत तितलियों का भी एक अद्भुत संसार है. चंचल और कोमल सी दिखने वाली रंग बिरंगी तितलियों के झुण्ड को देखकर पर्यटक मंत्र मुग्ध हो जाते हैं. वनस्पति की दृष्टि से देश के सबसे ज्यादा महत्व वाले इस रिजर्व वन क्षेत्र में सौ से भी अधिक प्रजाति वाली रंग - बिरंगी तितलियों की पहचान की जा चुकी है.
तितलियों की तिलस्मी दुनिया के बारे में वर्षों से अध्ययन कर रहे पन्ना नेशनल पार्क के डिप्टी डायरेक्टर रह चुके ए.के. नागर ने बताया कि तितलियां सिर्फ देखने में ही सुन्दर नहीं होतीं बल्कि मानव जीवन के लिए भी अत्यधिक उपयोगी होती हैं. एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराने वाली तितलियां परागण जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया को सम्पन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. यदि तितलियां न हों तो कई प्रजातियों की वनस्पतियों में फल ही नहीं बन पायेंगे, परिणाम स्वरूप पुनरूत्पादन प्रभावित होगा. श्री नागर का कहना है कि वन्य जीवों की श्रंखला में टाइगर भले ही सबसे अहम हो लेकिन इस श्रंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी तितलियां भी हैं. तितलियों की कई प्रजातियां ऐसी हैं जिनके खूबसूरत पंखों का रंग व धारियां टाइगर से मेल खाता है. यही वजह है कि ऐसी तितलियों का नाम भी टाइगर से जोड़कर रखा गया है. पन्ना नेशनल पार्क में पाई जाने वाली ऐसी तितलियों में प्लेन टाइगर, स्ट्राइब्ड़ टाइगर, ब्लू टाइगर, ग्लासी टाइगर प्रमुख हैं. इनके अलावा कैबेस व्हाइट, स्पाट स्वार्ड टेल, कामन रोज, लाइम बटर फ्लाई, कामन जेजेबल, जेबर ब्लू, ब्लू पेन्जी, लाइन पेन्जी, कामन लेपर्ड, पेन्टेड लेड़ी व बैरोनेट आदि प्रमुख हैं जो बड़ी संख्या में दिखाई देती हैं.
अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि जीवन चक्र के दौरान तितलियों का लार्वा वनस्पतियों का तेजी के साथ भक्षण करता है और अनियंत्रित वृद्धि को रोकता है. यही लार्वा विभिन्न प्रकार के पक्षियों, मकड़ी, मेंटिस एवं वास्प प्रजाति के छोटे जन्तुओं का भोजन बनता है. इस तरह से भोजन श्रंखला की एक कड़ी के रूप में तितलियों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता. श्री नागर ने बताया कि प्रदूषण के प्रति भी तितलियां बहुत अधिक संवेदनशील होती हैं. जिन क्षेत्रों में तितलियों की उपलब्धता न्यून होती है उससे यह पता चलता है कि यहां प्रदूषण का स्तर अधिक है. प्राकृतिक संतुलन के लिए रंग - बिरंगी तितलियों का वजूद निहायत जरूरी है. इसके लिए आवश्यक है कि तितलियों का वास स्थल सुरक्षित रहे तथा वातावरण प्रदूषण से मुक्त रहे.