Saturday, July 8, 2023

लघू धान्न ले आइए खाने हित निज गेह, भगे मोटापा छोड़ घर रक्तचाप मघुमेह

  • पहले हमारे भोजन में 10-12 प्रकार के अनाज शामिल थे, अब गायब 
  • इन मोटे अनाजों की खूबियां बता रहे हैं पद्मश्री बाबूलाल जी दाहिया                 

     



               

मित्रो ! पहले हमारे भोजन में दश- बारह प्रकार के अनाज शामिल थे और वह इसलिए कि हम खेतो में उस अनाज का बीज बोते थे, जो हमारा खेत मांगता था।  क्योकि हमारी समूची खेती ही वर्षा आधारित हुआ करती थी, जिसमे औसतन 4 वर्ष में एक वर्ष सूखे का होता था। पर आज सिंचाई के साधनों के कारण वह अनाज उगाते हैं, जो बाजार मांगता है। 

अब सपोज करिए कि बाजार ने अगर सोयाबीन की मांग कर दी तो किसान अपने उन बड़े- बड़े बांधों  तक को फोड़ कर सोयाबीन बो देता है, जो कभी तालाब की तरह कार्तिक तक भरे रहते और बाद में या तो उनमे गेहूं चना बोया जाता या अगर सूखे का साल हुआ तो समूचे बांध में कोदो बो दिया जाता था।

पहले अनाज का ऐसा विभाजन नही था, जैसा मोटे अनाज आदि में आज है। विभाजन था तो सिर्फ यह कि कुछ खाने में कोमल थे जिनमे दाल सब्जी की मात्रा कम लगती थी, उन्हें गेहू, चावल कहा जाता था। और कुछ ज्यादा खुरदरे थे, जिन्हें दो हिस्सा दाल सब्जी या दूध मठ्ठा के बिना हलक के नीचे नहीं उतारा जा सकता था। ऐसे अनाजों को वे कोदो, कुटकी, सांवा ,काकुन, ज्वार, बाजरा के नाम से जानते थे।

वर्षा आधारित खेती में सूखा के  बाद किसान को तुरन्त राहत देने वाले अनाज की आवश्यकता महसूस होती थी। ऐसी स्थिति में डेढ़ माह में पकने वाले कुटकी, सांवा और काकुन महत्वपूर्ण अनाज थे। शायद इसीलिए इन्हें संस्कृत के विद्वानों द्वारा लघु धान्न कहा गया होगा। पर जब वह उन्हें खेत मे उगाते तो खाते भी। अस्तु उस समय इन अनाजों को गरीबों का भोजन ही कहा जाता था।

इनके गुण धर्मो को नई पीढ़ी जाने अस्तु हमारी मौखिक परम्परा के अपढ़ किसान जो अक्सर पढ़ने वालों को तिरस्कृत करते हुए कहा करते थे कि -

 जउन तोहरे पोथी म , व हमारे मुँहे मा

यानी कि जो चीज तुम्हारे पुस्तकों में है वह मौखिक परम्परा में हमारे मुँह में है। अस्तु वे अपने उस अनुभव जनित ज्ञान को सूत्रबध्य भी कर देते थे। यथा -

तीन पाख दो पानी। पक आईं कुटकी रानी।।

      या  

सांवा जेठा अन्न कहावय, सब अनाज से आगे आबय ।

परन्तु कोदो का अपना अलग ही मिजाज था। क्योंकि वह पकने में तो ३ से ४ माह लेता था । फिर भी सूखा सहने की अद्भुत क्षमता कि चाह बड़े- बड़े बांध को फोड़ कर बो दीजिए या ऊंचे खेतों में लेकिन हर जगह पक कर तैयार। और फिर अस्सी वर्ष तक खराब न हो शायद इसीलिए उसे अनाजों का राना (राजा) भी कहा जाता था कि-

  सगमन सरई दहिमन राना, आसी बारिश ना होंय पुराना ।

यही कारण हैं कि इन दो हिस्सा दाल- सब्जी या दूध- मट्ठे से  कंठ के नीचे उतारे जाने वाले अनाजों पर अनेक कहावतें, लोकगीत पहेलियां और लोक कथाएं थीं।


एक परोक्ष लाभ यह भी था कि इन मोटे अनाजों को खाने वाले हमारे ग्रामीण कृषि आश्रिति समाज को कभी, मोटापा,रक्तचाप, सुगर जैसी बीमारी नहीं होती थी। वंशानुगत कारणों से यदि किसी को हुई भी तो उतनी असर कारक नही होती थी। क्योकि इनमें स्वाभाविक उनके समन के औषधीय गुण मौजूद थे। पर आज जब से हमारा भोजन मात्र गेहूं चावल में सिमट गया है, तो अमूमन हर तीसरा ब्यक्ति इन बीमारियों से ग्रसित है। तो आइए इन लघु धान्न समझे जाने वाले अपने अनाजों के गुण धर्मो पर ही क्यों न कुछ कहावतें सूत्र बध्य कर दें ?

 लघू धान्न ले आइए, खाने हित निज गेह।  

 भगे मोटापा छोड़ घर, रक्तचाप मघुमेह।।

 सांवा कुटकी लोक में, ऐसे रहे अनाज।

 तुरत पके राहत दिए, खाया मनुज समाज।।

कोदो काकुन जो जन खाते, रक्तचाप मधुमेह न आते।

अच्छी सेहत अच्छा मन, यदि हम खाबें मोटे अन्न।।

तिगुने पोषक तत्व के, मोटे सभी अनाज।

 कुदरत ने उनको रचा, खाए मनुज समाज।।

 जब तक मोटे अन्न यह, खाते थे सब लोग।

 रक्तचाप मोटा पना, आए कभी न रोग।।

रक्तचाप मधुमेह से, चाहें अगर निजात।

मोटा अन्न खरीद कर, रहे हमेशा खात।।

कोदो कुटकी सँवा अरु,  काकुन मोटे अन्न।

राखें स्वस्थ शरीर को, मन निश्चिंत प्रशन्न।।

भोजन में शामिल करें, मोटे आप अनाज।

स्वस्थ तभी रह पायेंगे, वक्त कह रहा आज।।

इस वर्ष इन अनाजों पर सरकार भी खूब ध्यान दे रही है। लेकिन पहले यह भी सोचना पड़ेगा कि आखिर यह समाप्त क्यों हो गए ? पहले इन्हें बोना और खाना हमारी मजबूरी थी पर आज वह स्थित नही है। किसान कोई विष पान करने वाला भोले नाथ नही है कि वह जोखिम और घाटा ही उठाता रहे। इनका उत्पादन इतना कम है कि वर्तमान भाव में इनकी खेती नहीं हो सकती। सरकार के पास बड़े-बड़े कृषि प्रक्षेत्र हैं। पहले वहां कृषि विभाग उगाकर आय ब्यय का अध्ययन कर ले और उसके अनुसार मूल्य रखे तभी उनकी खेती सम्भव है।

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Thursday, July 6, 2023

बारिश से बेफिक्र जरा इन कन्दों को तो देखिए ?

 


 ।। बाबूलाल दाहिया ।।

हमारे यहां पानी की बारिश चार पांच दिनों से नहीं हुई है। किसान खेतों की जुताई कर हाथ में हाथ रख कर घर मे बैठे हैं और आकाश में घुमड़ रहे बादलों को देख रहे हैं। किन्तु बाड़ में उगे सारे कन्द पानी की ओर से बेपरवाह अपनी-अपनी बेल बढाने में होड़ सी लगाए हुए हैं। क्योंकि कि उन्हें बढ़ने की शक्ति पानी से नहीं जमीन में एक वित्ता गहरे पैठ बनाए अपनी गाँठ से मिलती है, जिसे कन्द कहा जाता है। 

यहां क्रमशः रखे हुए चारो पत्ते वैचादी कन्द, भालू कन्द, रायकन्द और  हँसिया ढापिन कन्द के हैं। यू तो इनमें देखने में अधिक अन्तर नही है ? फिर भी नशों के उभार एवं पत्ते के आकार के कटाव से जानकार लोगो के पहचान में आ रहे हैं। यह हमारे बनाए नियम में नही बल्कि कुदरत के नियम पर जबाब देह हैं। क्यो कि कार्तिक अगहन तक अपनी कुछ नई गाँठ तैयार कर उन्हें सूख जाना है। तभी तो वह सुअर , सेही एवं भालू के नैसर्गिक भोजन बनेंगे ?

मनुष्य तो आग के खोज के पश्चात बहुत बाद में इन्हें उबाल कर खाना शुरू किया, जो एक तरह से दूसरे के भोजन में डाका ही कहा जा सकता है। पर यह कई जंगली जन्तुओ के करोड़ों वर्षों से प्राणदाता रहे हैं। परन्तु अब जंगल में बहुत ही कम दिखते हैं। यह अलग बात है कि हमारे साथी राम लोटन जी अभी भी ऐसे 10-12 प्रकार के कन्दों को अपनी बाटिका में बचाए हुए है। तभी तो उनपर एक कहावत ही बन गई है कि जो कहीं न मिले वह राम लोटन की बगिया में जरूर मिल जायेगी। 

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इंडियन बटर ट्री एक ऐसा वृक्ष जिससे निकलता है घी, आप भी जानें !

 

इंडियन बटर ट्री यानि घी वाला वृक्ष। 

पेड़-पौधों के अद्भुत संसार में ऐसे अनेकों पेड़ हैं जिनके बारे में कम लोगों को जानकारी होती है। अनगिनत खूबियों और औषधीय गुणों से भरपूर ये वृक्ष मानव जीवन के लिए भी अत्यधिक उपयोगी होते हैं। यहाँ हम आपका परिचय एक ऐसे विचित्र वृक्ष से करवाते हैं, जिससे घी निकलता है। यह अनूठा वृक्ष उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पाया जाता है, जो कि घी, गुड़ तथा शहद देता है। इसके अलावा यह वृक्ष फल, औषधि, जानवरों के लिए चारा, इंधन और चूहों को मारने के लिए कीटनाशक भी उपलब्ध कराता है। इस पेड़ों के बीजों से इतना तैलीय पदार्थ निकलता है कि एक अंग्रेज अफसर ने इसका नाम घी वाला वृक्ष अर्थात इंडियन बटर ट्री रख दिया।

स्थानीय लोग इसे च्यूरा कहते हैं, इसका वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा बुटीरैशिया है। यह बहुमूल्य वृक्ष कुमाऊँ और पिथौरागढ़ जनपद तथा भारत नेपाल की सीमा पर काली नदी के किनारे 3 हजार फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है, इसके पेड़ 12 से 21 मीटर तक ऊंचे होते हैं। वहां उसे ज्यादा तादाद में उगाने का प्रयास किया जा रहा है। 

यह वृक्ष यहां की जलवायु में ही पनपता है, अतः वहां के लोगों के लिए यह कल्पवृक्ष के समान है । उन लोगों के लिए घी का यही एकमात्र साधन है। जिसके पास फल देने वाले 3-4  वृक्ष होते हैं, उसे साल भर बाजार से वनस्पति घी खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती। यह एक छायादार वृक्ष होता है, फूल आने का समय अक्टूबर से जनवरी होता है तथा जुलाई-अगस्त में इसके फल पक जाते हैं। पके हुए फल पीले रंग के होते हैं, खाने में काफी स्वादिष्ट और सुगंधित होते हैं । वातावरण में फैली इस फल की मीठी महक से ही मालूम पड़ जाता है कि फल पकने लगा है। गांव के लोग इन फलों को बड़े चाव से खाते हैं।

पहाड़ के घाटी वाले क्षेत्रों में इसके जब फूल खिलते हैं तब शहद का काफी उत्पादन होता है। इसकी पत्तियां चारे व भोजन पत्तल के अलावा धार्मिक अनुष्ठानों में उपयोग में लाई जाती हैं। च्यूरे की खली मोमबत्ती, वैसलीन और कीटनाशक बनाने के काम आती है। जिन क्षेत्रों में च्यूरे के पेड़ पाये जाते हैं उन क्षेत्रों में मधुमक्खी पालन भी किया जाता है। च्यूरे के पुष्प मकरंद से भरे रहते हैं जिससे उच्च कोटि का शहद तैयार होता है। इंडियन बटर ट्री के नाम से जाना जाने वाला च्यूरा पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर और चम्पावत जिलों के काली, सरयू, पूर्वी रामगंगा और गोरी गंगा नदी घाटियों में पाया जाता है। इसका फल बेहद मीठा होता है। फल के बीज से घी बनाया जाता है। घी वाला वृक्ष अर्थात इंडियन बटर ट्री के नाम से जाना जाने वाला च्यूरा मैदानी क्षेत्रों में पाये जाने वाले बहुपयोगी वृक्ष महुआ की पहाड़ी प्रजाति भी माना जा सकता है। 

च्यूरा से प्राप्त घी के विभिन्न उपयोग

च्यूरा के बीज से प्राप्त घी का प्रयोग प्रकाश हेतु दिए जलाने में भी किया जा सकता है। अगर इस घी को मोमबत्ती की तरह मोम की जगह उपयोग किया जाता है तो यह अच्छा प्रकाश तो देता ही है साथ ही सामान मात्रा के मोम या घी से दुगुने से भी ज्यादा समय तक प्रकाश देता है। इसे जलाने पर आस-पास के वातावरण में एक मधुर सुगंध भी फ़ैल जाती है। यह घी प्रकाश हेतु तेल के रूप में इस्तेमाल करने पर बहुत कम  धुआं उत्सर्जित करता है अर्थात इसमें से बहुत कम कार्बन उत्सर्जन होता है। जिस कारण इसका उपयोग पंपसेट, जनरेटर आदि में जैव ईंधन के रूप में विशेष रूप से किया जा सकता है। इस घी का प्रयोग प्राकृतिक मोम की तरह जाड़ों में त्वचा को फटने सेरोकने के लिए एंटी क्रैकिंग क्रीम के रूप में भी किया जा सकता है।

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