Saturday, June 10, 2023

पन्ना की लकवाग्रस्त बाघिन पी- 234 का वन विहार भोपाल में चल रहा इलाज

  •  बाघिन के दो नन्हे शावक अकोला बफ़र क्षेत्र में अपनी मां का कर रहे इंतजार 
  •  दोनों नन्हे शावकों की देखरेख के लिए वन कर्मचारियों को किया गया तैनात 

बाघिन पी-234 अपने शावकों के साथ अकोला बफ़र क्षेत्र में अठखेलियां करते हुए।   

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व की बाघिन पी- 234 के अचानक लकवाग्रस्त हो जाने से उसके दो नन्हे शावकों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। बाघिन को इलाज के लिए शुक्रवार 9 जून को दोपहर में पन्ना से वन विहार भोपाल ले जाया गया है, जहाँ बाघिन का इलाज जारी है। मां की गैरमौजूदगी में उसके नन्हे शावकों की देखरेख के लिए पार्क प्रबंधन ने वन कर्मचारियों को तैनात किया है, जो शावकों की निगरानी कर रहे हैं। 

उल्लेखनीय है कि बाघिन पी- 234 बीते माह 29 मई को अपने दो नन्हे शावकों के साथ अकोला बफ़र क्षेत्र में अठखेलियां करते हुए देखी गई थी। यह खुशखबरी पार्क प्रबंधन द्वारा सोशल मीडिया में साझा किया गया था, जिससे वन्य जीव प्रेमी बेहद खुश और उत्साहित थे। लेकिन इस खुशखबरी के कुछ दिन बाद ही यह दुःखद खबर आ गई जो चिंता में डालने वाली है। अकोला बफ़र क्षेत्र में भ्रमण के दौरान पर्यटकों ने बीते रोज जब दोनों पैरों को घसीट कर चलती हुई बाघिन पी- 234 को देखा तो उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाल दिया गया जो वायरल हो गया। जानकारी मिलते ही पार्क प्रबंधन भी तुरंत सक्रिय हो गया तथा बाघिन का प्राथमिक उपचार करने के साथ उसे ट्रेंकुलाइज कर इलाज के लिए भोपाल भिजवाया गया। 

 लकवाग्रस्त होने पर पिछले पैरों के सहारे खड़ी होने में असमर्थ बाघिन का पीड़ादायी द्रश्य। 

पन्ना टाइगर रिज़र्व के वन्य प्राणी चिकित्सक डॉ. संजीव कुमार गुप्ता ने जानकारी देते हुए बताया कि शुक्रवार की रात में ही बाघिन वन विहार भोपाल पहुँच गई है जहाँ विशेशज्ञ चिकित्सकों की टीम द्वारा बाघिन का इलाज किया जा रहा है। डॉ. गुप्ता भी बाघिन के साथ भोपाल गए हैं तथा बाघिन की हालत में सुधार होने तक वहीँ रहेंगे। आपने बताया की बाघिन पीछे के पैरों पर जोर नहीं डाल पा रही है, यह सब यकायक हुआ है। लेकिन बिना देरी के चूँकि इलाज भी तुरंत शुरू हो चुका है इसलिए जल्दी रिकवरी की उम्मीद है। हालात में सुधार होने पर बाघिन पी- 234 को पन्ना लाकर अकोला बफ़र में उसके बच्चों के पास छोड़ा जायेगा।

 बाघिन पी- 234 के कुनबे से आबाद है अकोला बफ़र 



पन्ना टाइगर रिजर्व के अकोला बफर का आकर्षण बाघिन पी- 234 तथा उसका भरा-पूरा कुनबा है। मालूम हो कि पन्ना टाइगर रिजर्व की संस्थापक बाघिन टी-2 जिसे मार्च 2009 में कान्हा से पन्ना लाया गया था, इस बाघिन ने जुलाई 2013 में चार शावकों को जन्म दिया था। इन्हीं शावकों में से एक बाघिन पी-234 है, जिसके कुनबे ने अकोला बफर को गुलजार किया हुआ है। इस बाघिन ने नर बाघ टी-7 के साथ मिलकर अपने कुनबे को बढ़ाया है। इसी बाघिन की बेटी पी-234 (23) ने अकोला बफर क्षेत्र में ही जनवरी 2021 में तीन शावकों को जन्म दिया था।  इस तरह से बाघिन पी- 234 के कारण ही अकोला बफर बाघों से आबाद हुआ जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। 

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Friday, June 9, 2023

देश व दुनिया में प्रसिद्ध पन्ना के हीरों को मिलेगा जीआई टैग

  • विगत 7 जून 23 को किया गया आवेदन हुआ स्वीकृत 
  • अंतरराष्ट्रीय बाजार में पन्ना के हीरों की बढ़ेगी चमक 


।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। बेशकमती रत्न हीरा की खदानों के लिए देश और दुनिया में प्रसिद्ध मध्यप्रदेश के पन्ना जिले की धरती से निकलने वाले हीरों को जीआई टैग मिलेगा। इसके लिए 7 जून 23 को किया गया आवेदन स्वीकृत हो गया है। जल्दी ही पन्ना की रत्नगर्भा धरती से निकलने वाले हीरों को जीआई टैग मिल जाएगा।  

हीरा अधिकारी पन्ना रवि पटेल ने बताया कि जीआई टैग मिलने से पन्ना के हीरो की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैल्यू बढ़ेगी। इसकी खूबी बताते हुए श्री पटेल ने कहा कि जीआई (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) यानी भौगोलिक संकेत एक प्रतीक है, जो मुख्य रूप से किसी उत्पाद को उसके मूल क्षेत्र से जोड़ने के लिए दिया जाता है। जिस वस्तु को यह टैग मिलता है वह उसकी विशेषता बताता है।  

पन्ना के हीरों को जीआई टैग मिले इसके लिए ह्यूमन वेलफेयर सोसाइटी लखनऊ द्वारा चेन्नई स्थित संस्था में आवेदन किया गया था। भारत के वाणिज्य मंत्रालय के तहत काम करने वाली यह संस्था पूरी जांच पड़ताल और छानबीन के बाद जीआई टैग देती है। जीआई टैग मिलने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उस प्रोडक्ट की कीमत व महत्व बढ़ जाता है।


उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की पहचान सदियों से यहां की धरती से निकलने वाले बेशकीमती हीरों के कारण है, यही वजह है की पन्ना को डायमंड सिटी के नाम से भी जाना जाता है। जी आई टैग मिलने से पन्ना के हीरो की चमक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ेगी, जिसका लाभ निश्चित ही पन्ना के हीरा व्यवसाय से जुड़े लोगों को मिलेगा। 

मालुम हो कि 2003 में जीआई टैग की शुरुआत के बाद भारत में पहला जीआई टैग दार्जिलिंग की चाय को साल 2004 में मिला था। उसके बाद देश के अलग-अलग राज्यों और क्षेत्र विशेष की पहचान बन चुके अनेकों उत्पादों को जीआई टैग मिल चुका है। इनमें कश्मीर का केसर और पश्मीना शॉल, नागपुर के संतरे, बंगाली रसगुल्ले, बनारसी साड़ी, तिरुपति के लड्डू, रतलाम की सेव, बीकानेरी भुजिया, झाबुआ का कड़कनाथ, चन्देरी साड़ी, महोबा का पान आदि शामिल है। उत्पाद के पंजीकरण और उसके संरक्षण के लिए दिसंबर १९९९ में एक एक्ट पारित किया गया था। इस एक्ट को Geographical Indications of Goods (Registration and Protection) Act, 1999 कहा गया।

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Tuesday, June 6, 2023

घना जंगल, गहरा सेहा और मौत के मुंह में फंसी गाय !

चारों तरफ घनघोर जंगल, नीचे हजारों फीट गहरा सेहा जहां गिरने का मतलब सीधे मौत। इसी जगह पर लाल रंग की एक प्यारी सी गाय फंसी हुई थी, जहां से निकलने का कहीं कोई भी रास्ता नहीं था। जाहिर है कि गाय की मौत निश्चित थी। लेकिन यहां "जाको राखे साइयां मार सके ना कोय" वाली बात अक्षरसः  चरितार्थ हुई। इसी जगह पर अचानक हम लोग पहुंचे और गाय को मुसीबत में देख पास के गांव से ग्रामीणों को बुलाया। परिणाम स्वरूप गाय मौत के मुंह से सुरक्षित बचा ली गई। 


पल्थरा गांव के पास स्थित वह खतरनाक गहरा सेहा जहाँ गाय फँसी हुई थी। 

।। अरुण सिंह ।।

पन्ना। जिला मुख्यालय पन्ना से तकरीबन 35 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत रहुनिया के छोटे से गांव पल्थरा में समाजसेवी संस्था समर्थन द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर 5 जून को पौधरोपण सहित अन्य कई गतिविधियों वाला कार्यक्रम रखा गया था। इस कार्यक्रम में समर्थन संस्था के रीजनल कोऑर्डिनेटर ज्ञानेंद्र तिवारी जी के साथ मैं भी पहुंचा। घने जंगलों के बीच एक छोटा सा गांव पल्थरा स्थित है, जहां 35 आदिवासी परिवार रहते हैं। 

इस अनूठे गांव की अपनी कुछ खूबियां और विशेषताएं हैं, जिस पर अलग से कभी चर्चा करूंगा। विश्व पर्यावरण दिवस पर यहां मिडिल क्लास तक पढ़ने वाले ग्रामीण बच्चों के बीच पेंटिंग प्रतियोगिता भी आयोजित हुई, जिसमें बच्चों ने बड़े ही उत्साह के साथ भाग लिया। पल्थरा गांव के आदिवासी बच्चों ने अपने अंदाज में प्रकृति को चित्रित किया जो उनके लिए बेहद सहज और स्वाभाविक था। प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी अनेकों गतिविधियों व हांथ धुलाई कार्यक्रम के बाद जामुन के एक विशाल वृक्ष की छांव में सभी ने गकड़िया-भर्ता और खीर का आनंद लिया। इस मौके पर ग्रामीण बच्चों की अनोखी खेल गतिविधि भी जारी रही। ग्रामवासियों के बीच दिन कब गुजर गया पता ही नहीं चला।

शाम को लगभग 5 बजे हम लोग पल्थरा से पन्ना के लिए रवाना हुए। हमारी गाड़ी कुछ दूर ही चली होगी, उसी समय मुझे याद आया कि इस गांव के आसपास कोई बड़ा और गहरा सेहा है जो पन्ना के कौआ सेहा से भी अधिक गहरा तथा यहां का जंगल भी घना है। इस सेहा का जिक्र करने पर मेरे बगल में बैठे ज्ञानेंद्र जी बोले वह सेहा यही कहीं पास में ही है, आप यदि देखना चाहो तो वहां चलते हैं। जाहिर सी बात है मैंने कहा अभी समय है चलो चलते हैं। फिर क्या था गाड़ी पन्ना की तरफ से मुड़कर रहुनिया मार्ग पर चलने लगी। बमुश्किल चार-पांच किलोमीटर चलने पर हम लोग उस सेहा के निकट पहुंच गए जो सड़क मार्ग से साफ नजर आता है।

सेहा का नजारा, चारों तरफ घना जंगल और वनाच्छादित पहाड़ियां। 

बेहद उत्सुकता के साथ चट्टानों को पार करते हुए जब हम इस सेहा के निकट पहुंचे, तो वहां का नजारा देख हैरत में पड़ गए। जहां तक नजर जाए चारों तरफ घना जंगल और वनाच्छादित पहाड़ियां दिख रही थीं, सेहा की गहराई का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था। इस सेहा के ऊपर दर्जनों की संख्या में गिद्ध मंडरा रहे थे। वहां की सीधी पहाड़ी व चट्टानों पर बिखरी सफेदी को देख प्रतीत हो रहा था कि यह सेहा गिद्धों का भी प्रिय रहवास है। हम लोग प्रकृति के इस अद्भुत नजारे को अपने मोबाइल कैमरे में कैद ही कर रहे थे कि अचानक हमारी नजर लाल रंग की गाय पर पड़ी। हम जहां खड़े थे वहां से तकरीबन 15-20 फीट नीचे एक विशालकाय चट्टान की किनारे यह गाय खड़ी थी। इस चट्टान के बाद नीचे पाताल जैसा दिखने वाला सेहा था, जिसमें गिरने का मतलब मौत तो है ही अस्थि पंजर भी मिल पाना संभव नहीं है।

गाय को किस जतन से ऊपर सुरक्षित लाया जाय, इस पर मशविरा करते समाजसेवी युवक व ग्रामीण।  

हम लोग इस गाय को वहां देख हैरत में पड़ गए कि आखिर यह वहां पहुंची कैसे ? क्योंकि नीचे गहरा सेहा और जहां गाय थी वहां से ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं। ऐसा लग रहा था कि यह गाय जाने अनजाने यहां गिर गई होगी और फिर यहां फसकर रह गई। चट्टान में गाय का गोबर जहां तहां पड़ा था, जो सूखकर कंडी में तब्दील हो चुका था। इससे यह अनुमान लगा कि यह गाय यहां पर कम से कम तीन-चार दिनों से है। एक दिन पूर्व ही बारिश हुई थी, जिससे चट्टान में एक जगह पानी भर गया था। शायद यह पानी ही भीषण गर्मी में भूखी और प्यासी गाय के लिए जीवनदायी साबित हुआ। 

प्रकृति के अद्भुत नजारों से हमारा ध्यान हटकर अब मौत के मुंह पर फंसी इस गाय पर केंद्रित हो गया। इसे ऐसी हालत में छोड़कर जाने को दिल तैयार नहीं था, फलस्वरुप सोचने लगे कि क्या करें, इसे कैसे मुसीबत से बाहर निकालें। हम चार-पांच लोग थे लेकिन हम सब मिलकर भी गाय को 15-20 फिट ऊपर नहीं खींच सकते थे। ऐसी स्थिति में सड़क मार्ग से गुजरने वाले लोगों को आवाज देकर बुलाने का प्रयास किया, लेकिन वहां का परिवेश, गहरा सेहा और घनघोर जंगल होने के कारण कोई भी राहगीर रुकना तो दूर वे और तेजी से निकल भागे। कोई उपाय न देख ज्ञानेन्द्र जी ने अपने समाजसेवी साथी राजकुमार जी को फोन किया जो पल्थरा गांव में ही थे। उन्हें सारी बात बताई और कहा कि इस गाय को बचाना जरूरी है अन्यथा यह सेहा में गिरकर मर जाएगी।  

गाय के कमर व अगले हिस्से में रस्सा बांधकर ऊपर खींचा गया। 

स्वभाव से बेहद संवेदनशील राजकुमार जी ने मामले की गंभीरता को समझा और बिना देरी किए गाय को बचाने की मुहिम में जुट गए। गांव में मोटे रस्से  ढूंढे गए तथा गांव के कुछ युवकों को तैयार कर गाड़ी से तुरंत सेहा के लिए रवाना हुए। इतने सारे लोगों को वहां पर देख गाय की आंखों में भी उम्मीद की किरण जागी कि शायद अब बच जाऊंगी। उसे पेड़ से पत्ते तोड़ कर दिया गया तो वह निश्चिंत भाव से पत्ते खाने लगी। जब कुछ युवक नीचे उतर कर गाय के पास पहुंचे तो उसने भी सहयोग किया और शांत खड़ी रही।  

मौत के मुंह से सुरक्षित निकलकर अपने ठिकाने की तरफ जाती गाय। 

मोटे रस्से से गाय को कमर व आगे के हिस्से में बांधा गया और ऊपर खड़े लोगों ने आहिस्ता-आहिस्ता सावधानी पूर्वक गाय को ऊपर खींचा।  देखते ही देखते गाय सुरक्षित ऊपर पहुंच गई। जब रस्सी खोली गई तो वह उठ कर खड़ी हुई और वहां मौजूद लोगों को प्यार भरी नजर से देखा और फिर चल पड़ी। गाय को इस तरह जाते देख मन आनंदित और प्रफुल्लित हो गया। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम लोगों की यह सबसे अच्छी और सुकून प्रदान करने वाली गतिविधि रही जो निश्चित ही अविस्मरणीय रहेगी।

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