।। बाबूलाल दाहिया ।।
हमारे यहां पानी की बारिश चार पांच दिनों से नहीं हुई है। किसान खेतों की जुताई कर हाथ में हाथ रख कर घर मे बैठे हैं और आकाश में घुमड़ रहे बादलों को देख रहे हैं। किन्तु बाड़ में उगे सारे कन्द पानी की ओर से बेपरवाह अपनी-अपनी बेल बढाने में होड़ सी लगाए हुए हैं। क्योंकि कि उन्हें बढ़ने की शक्ति पानी से नहीं जमीन में एक वित्ता गहरे पैठ बनाए अपनी गाँठ से मिलती है, जिसे कन्द कहा जाता है।
यहां क्रमशः रखे हुए चारो पत्ते वैचादी कन्द, भालू कन्द, रायकन्द और हँसिया ढापिन कन्द के हैं। यू तो इनमें देखने में अधिक अन्तर नही है ? फिर भी नशों के उभार एवं पत्ते के आकार के कटाव से जानकार लोगो के पहचान में आ रहे हैं। यह हमारे बनाए नियम में नही बल्कि कुदरत के नियम पर जबाब देह हैं। क्यो कि कार्तिक अगहन तक अपनी कुछ नई गाँठ तैयार कर उन्हें सूख जाना है। तभी तो वह सुअर , सेही एवं भालू के नैसर्गिक भोजन बनेंगे ?
मनुष्य तो आग के खोज के पश्चात बहुत बाद में इन्हें उबाल कर खाना शुरू किया, जो एक तरह से दूसरे के भोजन में डाका ही कहा जा सकता है। पर यह कई जंगली जन्तुओ के करोड़ों वर्षों से प्राणदाता रहे हैं। परन्तु अब जंगल में बहुत ही कम दिखते हैं। यह अलग बात है कि हमारे साथी राम लोटन जी अभी भी ऐसे 10-12 प्रकार के कन्दों को अपनी बाटिका में बचाए हुए है। तभी तो उनपर एक कहावत ही बन गई है कि जो कहीं न मिले वह राम लोटन की बगिया में जरूर मिल जायेगी।
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