- जिस गति से आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, तो न तो उससे अब जंगल बचेगा और न ही पहाड़ बच पाएंगे। और जब यह दोनों न रहेंगे तो पानी को कोई माई का लाल नहीं बचा पाएगा।
।। बाबूलाल दाहिया ।।
हम भग्यशाली हैं कि भारत का ह्रदय स्थल समझे जानेवाले मध्य प्रदेश में रहते हैं। एक तो यह तमाम जैव विविधताओं से परिपूर्ण यूं ही बहुत बड़ा प्रदेश है, दूसरा तमाम प्रदेशों की सीमाओं से जुड़े होने के कारण इसकी सांस्कृतिक विविधता में भी और चार चांद लग जाते हैं। बैज्ञानिकों का कथन है कि हमारी सेहत के लिए 30 प्रतिशत वन चाहिए। तो वह इतनी मात्रा में भले न हो, फिर भी सरकारी और निजी भूमि को मिला कर 20-22 प्रतिशत तो होगा ही ? इसका जीता जागता उदाहरण है, हमारे यहां आदिवासी समुदाय की बाहुलता। क्योंकि अभी तक यही देखा गया है कि "जहां- जहां घने जंगल, वहां - वहां आदिवासी। और जहां- जहां आदिवासियों का निवास वहां- वहां घना जंगल भी। किन्तु जहां अन्य समुदायों का पदार्पण हुआ, जंगल पहाड़ साफ।
लेकिन जिस गति से आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, तो न तो उससे अब जंगल बचेगा और न ही पहाड़ बच पाएंगे। और जब यह दोनों न रहेंगे तो पानी को कोई माई का लाल नहीं बचा पाएगा। हमारे राज्य की सीमा में उत्तर प्रदेश है, यहाँ की नदियां हिमनद हैं। पानी गिरे न गिरे हिमालय की बर्फ पिघलती है और नदियों से प्रवाहित हो वहां का जल स्तर सामान्य रखती हैं। किन्तु यहां की नदियां हिमनद या हिमपुत्री नहीं वनपुत्री हैं। हमारी पवित्र नदी नर्मदा का ही रेवा, नर्मदा के साथ-साथ मेकलसुता आदि नाम भी हैं।
अकेले नर्मदा भर नही यहां की समस्त नदियां वनजा ही हैं और इन वन जाइयों का अस्तित्व भी वन से ही है। वन रहेगा तो पानी रहेगा और पानी रहेगा तभी वन भी। क्यों कि जब वन नहीं रहता और समुद्र से आ रहे बादलों को धरती से नमी नहीं मिलती तो धरती का ताप या कार्बन डाइऑक्साइड उन्हें और ऊंचा उठा देती है। फलस्वरूप वह बगैर बरसे ही उड़ते हुए निकल जाते हैं। इसलिए पेड़ों को बचाने के लिए हमें पहाड़ के भी बचाने की जरूरत है।
क्योंकि जब कोई पत्थर हजारों वर्ष सूर्य की गर्मी से तपता है, वर्षा से गलता है तो उसमें क्षरण होता है। वह क्षरण पत्थरों के सन्धि स्थल में एकत्र होता रहता है। फिर उसी में पेड़ों के पत्ते झड़ और सड़ कर एक पर्त सी चढ़ा देते हैं, जिससे सड़े पत्ते और क्षरण मिल कर उपजाऊ मिटटी बन जाते हैं।
कालांतर में उसी उपजाऊ मिट्टी बने क्षरण में कोई पेड़ चिड़ियों, हवा या किसी अन्य माध्यम से अपना बीज पहुँचा देता है जो बढ़ कर उसी सन्धि स्थल में पेड़ का रूप ग्रहण कर लेता है। और हमारा हवा, पानी तथा फल का प्रदाता भी बन जाता है। परन्तु जब किसी पहाड़ या डोंगरी के पत्थर को गृह या सड़क निर्माण आदि के लिए निकाल लिया जाता है, तो पहली बरसात में ही वह सारी जमा हुई मिट्टी और पत्ते की लेयर बह जाती है। एवं वह डोंगरी हजारों वर्षों के लिए बांझ सी हो जाती है।
हमारा गांव पहाड़ के ठीक नीचे ही बसा है, तो पहले हमने पत्थर पेड़ युक्त हरी भरी डोगरी भी देखे हैं। और अब घुटे सिर की शक्ल की भी देख रहे हैं। इसलिए पर्यावरण और भविष्य बचाने के लिए हमें जंगल, नदी और पहाड़ तीनों को बचाने की जरूरत है।
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