Sunday, March 11, 2018

पन्ना के जंगलों में गरीबों के फल तेंदू की बहार

  •   आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर होता है पका हुआ तेंदू फल
  •   मीठा और पौष्टिक होने के साथ कब्जियत भी करता है दूर


जंगल में फलों  से लदी तेंदू वृक्ष  की डाल। फोटो - अरुण सिंह 

। अरुण सिंह 

पन्ना। वन संपदा के मामले में अत्यधिक समृद्ध बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पन्ना जिले में इन दिनों तेंदू फल की बहार है। यहां के जंगलों में प्रचुरता से पाये जाने वाले तेंदू वृक्ष इस समय गोल आकार वाले पीले रंग के तेंदू फलों से लदे हुये हैं। गुणों से भरपूर तेंदू को आमतौर पर गरीबों का फल कहा जाता है। आदिवासी गर्मी के दिनों में घर से निकलने के पहले तेंदू के पके हुये फल जरूर खाते हैं ताकि गर्मी के प्रकोप से उनका बचाव हो सके। आयुर्वेद चिकित्सकों का भी कहना है कि तेंदू का फल पौष्टिक होने के साथ-साथ पाचन के लिये भी बेहद उपयोगी है। तेंदू फल के सेवन से पेट साफ होता है तथा कब्जियत भी दूर होती है।

उल्लेखनीय है कि अमूमन तेंदू का पेड़ जंगलों में ही पाया जाता है। विन्ध्यांचल की पहाडिय़ों में यह पेड़ बहुलता में मिलता है। वन व खनिज संपदा से समृद्ध पन्ना जिले के जंगलों में भी तेंदू के वृक्ष प्रचुरता में मिलते हैं। जिले के उत्तर व दक्षिण वन मण्डलों के अलावा पन्ना टाईगर रिजर्व के कोर व बफर क्षेत्र के जंगल में भी बड़ी संख्या में तेंदू के पेड़ हैं जो गरीबों विशेषकर आदिवासियों की आय का प्रमुख श्रोत हैं। होली के बाद मार्च के महीने से लेकर मई तक आदिवासी जंगल से तेंदू फल का संग्रह कर बाजार में बेंचते हैं, जिससे उन्हें नियमित आय होती है। 

तेंदू फल खत्म होने के बाद इस वृक्ष में नई कोपलें निकल आती हैं, इन पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने में होता है। आमतौर पर 15 मई से 15 जून तक तेंदूपत्ता की तुड़ाई का कार्य चलता है, जिसका संग्रहण वन विभाग द्वारा कराया जाता है। तेंदूपत्ता तुड़ाई के कार्य से वनों के आस-पास रहने वाले आदिवासियों को इससे अच्छी खासी आय हो जाती है।

जंगल में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले तेंदू के पेड़ भी अब वनों की हो रही अधाधुंध कटाई के चलते तेजी से कम होते जा रहे हैं। जंगलों के सिकुडऩे और उजडऩे से प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले देशी और मौसमी फल भी गायब होते जा रहे हैं। आम जनमानस की स्मृतियों से जुड़े पारम्परिक फलों के लुप्त होने की अनेकों वजहें हैं, जिनमें तेजी से बढ़ती आबादी प्रमुख है। चौतरफा आबादी क्षेत्र का विस्तार होने के कारण बचे-खुले जंगलों पर जबरदस्त दबाव है, जलाऊ और इमारती लकड़ी के लिये लोग बेरहमी के साथ जंगल में कुल्हाड़ी चला रहे हैं जिससे पारम्परिक फलों के वृक्ष भी गायब हो रहे हैं। 

पन्ना जिले के वे इलाके जहां वनों की सुरक्षा को अहमियत मिल रही है, वहां अभी भी तेंदू, चिरौंजी, आँवला और महुआ के वृक्ष बड़ी तादाद में हैं। कल्दा पठार का जंगल वनोपज के मामले में अभी भी अपनी अहमियत बनाये हुय है। लेकिन खनन माफियाओं की धमाचौकड़ी बढऩे तथा दर्जनों की संख्या में वैध व अवैध पत्थर खदानों के चलने से यहां की वन संपदा को खतरा उत्पन्न हो गया है।

पन्ना के आस-पास भी हैं तेंदू वृक्ष



पन्ना शहर के निकट स्थित प्रणामी धर्मावलम्बियों के तीर्थ स्थल चौपड़ा मन्दिर के आस-पास तेंदू फल से लदे वृक्ष नजर आ रहे हैं। चूंकि यहां पर मन्दिर के पुजारी सहित अनेकों श्रद्धालु बने रहते हैं, इसलिये मन्दिर परिसर के आस-पास का जंगल अभी भी सुरक्षित है। किलकिला नदी के किनारे प्रकृति के बीच स्थित धार्मिक महत्व का यह मनोरम स्थल प्रणामी धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र तो है ही, सुबह बड़ी संख्या में लोग यहां सैर के लिये भी पहुँचते हैं। यहां चौपड़ा मन्दिर के ठीक पीछे तेंदू के कई वृक्ष मौजूद हैं जो इस समय तेंदू फल से लदे हुये हैं। पीले सुन्दर फलों से लदे इन वृक्षों को देखना अपने आप में एक सुखद अनुभव है। क्योंकि ऐसा दृश्य जंगल में ही देखने को मिलता है, शहर के निकट आबादी क्षेत्र में ऐसा दृश्य दिखाई देना दुर्लभ है।

उपहार और दण्ड दोनों उपलब्ध

जंगल में पाया जाने वाला तेंदू वृक्ष कई दृष्टि से अनूठा है। इस वृक्ष में जहां आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर मीठा, स्वादिष्ट, पौष्टिक और पाचक फल मिलता है, वहीं इस वृक्ष की पत्तियों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिये किया जाता है। बीड़ी मानव निर्मित है जबकि तेंदू फल प्रकृति का अनमोल उपहार है, जिससे तमाम तरह की व्याधियों और रोगों से निजात मिलती है। 

जबकि मानव निर्मित बड़ी पीने से फेफड़े खराब होते हैं और लोग असमय काल कवलित हो जाते हैं। इस तरह से देखा जाये तो तेंदू के वृक्ष में उपहार और दण्ड दोनों ही उपलब्ध होते हैं, अब निर्णय हमारा है कि हम किसका चुनाव करते हैं। स्वादिष्ट फल खाते हैं कि फेफड़ों को जलाने वाली बीड़ी पीते हैं।

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