- ग्रामीण अंचलों में महुआ सीजन किसी उत्सव से कम नहीं
- सुबह 5 बजे से ही महुआ बीनने निकल पड़ते हैंं ग्रामीण
पेड़ के नीचे महुआ लिये प्रसन्न मुद्रा में खड़ी महिला। |
।। अरुण सिंह ।।
पन्ना। गर्मी के इस मौसम में पन्ना जिले का जंगल महुआ फूलों की गंध से महक रहा है। सुबह 5 बजे से ग्रामीण महुआ बीनने के लिये जंगल की ओर कूच कर जाते हैं। वन क्षेत्र के आस-पास रहने वाले आदिवासियों के लिये तो महुआ का सीजन किसी उत्सव से कम नहीं होता। सुबह के समय यहां शीतल हवाओं व सफेद रसभरे महुआ फूलों की महक से वातावरण में मादकता इस कदर घुल जाती है कि गहरी सांस लेने भर से मन प्रफुल्लित और मदहोश हो जाता है। कल्दा पठार में आदिवासी समाज के लिये महुआ के फूल रोजी-रोटी का जरिया है, इस मौसम में आदिवासियों का पूरा कुनबा महुआ फूल चुनने में लगा रहता है।
उल्लेखनीय है कि पन्ना जिले के दक्षिण वन मण्डल के अन्तर्गत आने वाले कल्दा पठार के जंगल में महुआ वृक्षों की भरमार है। महुआ के अलावा भी यहां के जंगल में हर्र, बहेरा, आंवला, चिरौंजी का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता है। गर्मी का यह मौसम मार्च से लेकर मई तक कल्दा पठार के आदिवासियों के लिये बहुत अहम होता है, क्यों कि इसी सीजन में महुआ के वृक्षों से सफेद रसभरे फूल टपकते हैं। इन महुआ फूलों को एकत्र कर आदिवासी सुखाते हैं, जिससे उन्हें इतनी आय हो जाती है कि पूरे वर्ष भर उनका गुजारा हो जाता है।
जैव विविधता से परिपूर्ण कल्दा के जंगल में महुआ के वृक्ष बहुतायत से पाये जाते हैं, नतीजतन यह इलाका महुआ फूल व गोही के उत्पादन में अग्रणी है। इन दिनों सुबह 5 बजे से ही आदिवासी बांस की टोकरियां लेकर कुनबा सहित महुआ फूल चुनने के लिये जंगल में निकल जाते हैं और दिन ढलने तक वृक्षों से टपकने वाले महुआ फूलों का संग्रहण करते हैं। इस सीजन में पठार के आदिवासियों की यह दिनचर्या बन जाती है।
श्यामगिरी में महुआ फूल का संग्रहण कर रहे कुसुआ आदिवासी व तुलसी बाई ने बताया कि कल्दा पठार के श्यामगिरी सहित रामपुर, मैनहा, पिपरिया, जैतुपुरा, टोकुलपोंडी, भोपार, कुसमी, झिरिया व डोडी आदि में 50 ट्रक से भी अधिक महुआ फूल का संग्रहण हो जाता है। आदिवासियों ने बताया कि पेडों से इस कदर महुआ फूल टपकते हैं कि पूरे दिन चुनने के बाद भी पूरे फूल हम नहीं चुन पाते। इस सीजन की सबसे बड़ी खूबी और विशेषता यह भी होती है कि महुआ फूल आने पर बिछुड़े परिजनों का भी मिलन हो जाता है।
वनोपज है आदिवासियों के जीवन का आधार
महुआ फूल बीनते हुये महिला व बच्चे। |
पठार के जो लोग रोजी रोटी की तलाश व अन्य कारणों से बाहर चले जाते हैं वे भी इस सीजन में वापस घर लौट आते हैं। पूरा कुनबा साथ मिलकर महुआ फूलों के संग्रहण में जुटता है ताकि पूरे साल के खर्च की व्यवस्था हो सके। कुसुआ आदिवासी ने बताया कि अमदरा, मैहर, पवई व सलेहा के व्यापारी यहां आकर आदिवासियों से महुआ खरीदकर ले जाते हैं। सीजन में यहां एक व्यक्ति 5 से 6 क्विंटल महुआ एकत्र कर लेता है जो 15 से 20 रू. प्रति किग्रा. की दर से बिकता है। हर्र, बहेरा, आंवला, चिरौंजी व शहद से भी पठार के आदिवासियों को आय हो जाती है। यहां के लोग खेती किसानी से कहीं ज्यादा वनोपज पर ही आश्रित रहते हैं, जंगल यहां के आदिवासियों के जीवन का आधार है।
भालुओं का हर समय रहता है खतरा
महुआ लेकर जाती महिलायें। |
पत्ते जलाने से भड़क जाती है आग
महुआ सीजन गर्मी के मौसम में आता है। तेज धूप और गर्मी पडऩे पर ही महुआ फूल नीचे टपकते हैं। चूंकि गर्मी में पतझड़ भी होता है जिससे महुआ वृक्ष के नीचे बड़ी मात्रा में पत्ते जमा हो जाते हैं जिसके चलते महुआ फूल इन पत्तों के बीच से बीनने पर काफी असुविधा होती है। इसे दूर करने के लिये लापरवाहीवश ग्रामीण पेड़ के नीचे सफाई करने के लिये पत्तों में आग लगा देते हैं, यह आग फैलकर कभी-कभी जंगल को ही अपनी चपेट में ले लेती है जिससे वन व वन्य प्राणियों को नुकसान होता है। महुआ फूल बीनने वालों को चाहिये कि वे पत्तों पर आग लगाने के बजाय पत्तों को वहां से हटाकर पेड़ के नीचे की सफाई करें ताकि जंगल की आग से सुरक्षा हो सके।00000
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