महान गणितज्ञ और कंप्यूटर जैसा दिमाग रखनेवाले शख्स वशिष्ठ नारायण सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके निधन के साथ ही भारत ने गणित के क्षेत्र में नाम कमाने वाले लाल को खो दिया। लेकिन क्या आप जानते हैं, उन्होंने अपने जमाने के प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन को भी चुनौती दी थी। वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म 2 अप्रैल 1942 को बिहार के भोजपुर जिले के बसंतपुर गाँव में हुआ था। इनका परिवार आर्थिक रूप से गरीब था, इनके पिताजी पुलिस विभाग में कार्यरत थे। बचपन से वशिष्ठ नारायण सिंह में विलक्षण प्रतिभा थी, वशिष्ठ जी ने प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही पूरी की। वर्ष 1962 में इन्होनें नेत्राहत स्कूल में मेंट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया था। जिसके बाद साइंस कॉलेज से इन्टरमीडिएट की परीक्षा में भी पूरे बिहार में टॉप किया।
जब ये पटना साइंस कॉलेज में पढाई कर रह थे तो उन्होंने अपने शिक्षकों को गलत पढ़ाने के कारण बीच में ही टोक दिया था। जब यह बात उनके प्रिंसिपल को पता चली तो इनकी अलग से परीक्षा ली गयी जिसमे उन्होंने सारे एकेडमिक रिकॉर्ड तोड़ दिए। बिहार के रहनेवाले वशिष्ठ नारायण छात्र जीवन से ही मेधावी थे। इनके शैक्षणिक रिकॉर्ड को देखते हुए 1965 में पटना विश्वविद्यालय ने नियम बदल दिया और वशिष्ठ नारायाण को एक साल में ही बीएससी ऑनर्स की डिग्री दे दी। उनकी प्रतिभा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पटना सायंस कॉलेज में गलत पढ़ाने पर गणित के प्रोफेसर को टोक देते थे। जिसके बाद उनकी शोहरत इतनी फैली कि लोग उन्हें वैज्ञानिक जी कहकर पुकारने लगे। पटना सायंस कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही कैलोफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की तरफ से उनको अमेरिका आने का ऑफर मिला। 1965 में वशिष्ठ नारायण अमेरिका चले गये, जहां 1969 में पीएचडी की डिग्री हासिल करने के बाद वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ दिनों के लिए कंप्यूटर जैसे दिमागवाले शख्स ने नासा में भी काम किया। 1969 में वशिष्ठ नारायण ने ‘द पीस ऑफ स्पेस थ्योरी’ नाम से एक शोधपत्र प्रस्तुत किया. जिसमें उन्होंने आइंस्टीन की थ्योरी सापेक्षता के सिद्धांत को चौलेंज किया। पीएचडी की डिग्री उन्हें इसी शोध पर मिली। 1971 में अमेरिका से भारत लौटे तो उनके साथ किताबों के 10 बक्से थे। स्वदेश वापसी पर उन्होंने कई नामी गिरामी संस्थानों में अपनी सेवाएं दीं। उनके बारे में कहा जाता है कि नासा में अपोलो की लॉन्चिंग से पहले 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गये. जब कंप्यूटर ठीक किए गए तो वशिष्ठ नारायण और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन समान निकला।
ऐसे समाज में जीवित रहकर भी वशिष्ठ बाबू क्या करते?
दुनिया के इस महान गणितज्ञ का देहावसान जिन परिस्थितियों में हुआ, वह बेहद दुःखद और हमारी असलियत को उजागर करने वाला है। निधन होने पर पटना अस्पताल के बाहर इनका शव पड़ा रहा और वो सोशल मीडिया में वायरल हो गया। तब जाकर विहार के मुख्यमंत्री सहित प्रशासन को उनकी सुध आई। घटनाक्रम से व्यथित योगेन्द्र भदौरिया फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं कि ये सामाजिक दुर्भाग्य है कि प्रशासन के साथ - साथ आम आदमी ने भी इनका साथ नही दिया....अंत समय तक ...नैतिकता की गिरावट यही है...इनकी पोस्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए राघवेन्द्र राज मोदी ने बेहद तल्ख़ अंदाज में अपनी भावनाओं को कुछ इस तरह प्रकट किया है -अच्छा हुआ वशिष्ठ बाबू चले गए। वे रह कर भी क्या करते? जिस देश और प्रदेश के लिए वे अमेरिका की शान ओ शौकत और नासा जैसी प्रतिष्ठित संस्थान की नौकरी छोड़कर आये थे, उस देश और प्रदेश ने उन्हें बहुत पहले छोड़ दिया था। जिस वशिष्ठ नारायण सिंह को अमेरिका के विद्वत समाज ने तलहथी पर बैठा कर रखा था, उसकी हमने कदर नहीं की। भले ही उन्होंने आइंस्टीन के सिद्धांत को चुनौती दी हो, उनका दिमाग कम्प्यूटर को भी मात देनेवाला क्यों न रह हो, विश्व के सबसे बड़े गणितज्ञ क्यों न रहे हों, हमे उससे क्या?
नेताओं के जयकारे लगाना और बेईमान-शैतान के पीछे भागना जिस समाज की नियति हो, जहां हत्यारे और घोटालेबाजों के स्मारक बने हों, सरकारी संरक्षण में चलनेवाले बालिका गृहों में यौनाचार होता हो, सामूहिक नकल और सेटिंग से बच्चे टॉप करते हों, वहां डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे जीनियस की जरूरत ही क्या है?
उन्हें तो हमने जीते जी ही मार डाला था! न सरकार ने सुध लेने की जरूरत समझी न समाज को उनकी याद आई। हां, उनके मरने के बाद श्रद्धांजलि देनेवालों की बाढ़ आ गई है। दिल्ली से पटना तक शोक की बयार चलती दिख रही है।
वह तो भला हो न्यूज चौनलों का जिनके शोर मचाने पर सरकार को दायित्व बोध हुआ। देर से ही सही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजकीय सम्मान से वशिष्ठ बाबू के अंतिम संस्कार की घोषणा की और उनके पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित किया। लेकिन नामी-गिरामी डॉक्टरों वाले पटना मेडिकल कालेज अस्पताल ने उन्हें अपमानित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अपने चिर-परिचित अंदाज में इस महान गणितज्ञ के शव को बाहर सड़क पर ला छोड़ा। यह अस्पताल अपने इसी तरह के अमानवीय और क्रूर व्यवहार के लिए जाना जाता है। खबर दिखाए जाने के बाद एम्बुलेंस से लेकर सम्मान देने तक कि व्यवस्था हुई। लेकिन तबतक पूरे देश में हमारी थू-थू हो चुकी थी। सच पूछिए तो हम इसी थू-थू के पात्र हैं। नायकों की हम उपेक्षा करते हैं और खलनायकों के पीछे भागते हैं। यही हमारा चरित्र बन गया है। ऐसे समाज में जीवित रहकर भी वशिष्ठ बाबू क्या करते?
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