Sunday, December 8, 2019

क्या वैश्विक आत्मघात की ओर अग्रसर है मनुष्यता ?

  • बसुधैव कुटुंबकम की धारणा को यथार्थ करने का सही वक़्त  
  • या तो एक विश्व सरकार होगी या कोई विश्व नहीं होगा
  • यदि ऐसा हम नही कर सके तो वैश्विक आत्मघात सुनिश्चित



विज्ञान कहता है कि मानव की दर्द सहने की अधिकतम क्षमता 45 डेल(दर्द नापने की इकाई) होती है। किंतु जिस समय एक स्त्री एक शिशु को जन्म देती है उस वक़्त वह 57 डेल दर्द झेलती है अर्थात 22 हड्डियां एक साथ टूटें तो जितना दर्द होगा, वह उतने दर्द से गुजरती है। और यदि उस स्त्री ने सावधानी बरती है और मेडिकल विभाग ने भी सावधानी बरती है और परिवार के लोगों ने भी समय समय पर यथेष्ट केअर ली हो तो एक नए जीवन को जन्म मिलता है और स्त्री को भी मा होने का गौरव मिलता है।उसके पूर्व वह एक स्त्री थी किन्तु एक नए जीवन को शिशु के रूप में जन्म देने के साथ ही एक श्माँश् को भी जन्म मिलता है।उसके पूर्व वह एक स्त्री थी।अब उसे माँ होने का गौरव मिलता है। उसने जीवन को जन्म दिया।
उसी भांति यह भूमण्डल भी एक गर्भावस्था में है।यदि सर्वसम्बन्धित लोग सावधानी बरतें, केअर लें, तो एक सर्वथा नए मंनुष्य को जन्म मिल सकता है और यह हमारी प्यारी पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है। दुनिया के सारे झगड़े,झांसे,युद्ध, हिंसा खत्म होकर एक प्रेमपूर्ण जीवन हो सकता है।
कैसा होगा वह नया मंनुष्य? क्या उसके चार हाथ-पैर होंगे? नहीं। वह अपने जाति सूचक विशेषण छोड़ देगा।धर्म के विशेषण भी छोड़ेगा। वह केवल इंसान होगा। असलियत भी यही है।हर व्यक्ति इंसान की तरह पैदा होता है।इंसान की तरह मरता है। उसको मा बाप बताते है कि तुम हिन्दू हो या मुसलमान हो।तुम क्षत्रिय हो तुम ब्राह्मण हो, तुम वैशय हो। उनको उनके मा बाप ने बताया था। उनको उनके मा बाप ने बताया था।इस तरह अंधे अंधा ठेलिया चल रहा है। प्रारम्भ से ही गलत राह पकड़ ली है। परिणाम दुखद ही हो सकते थे। सारा संसार एक पागलखाना हो गया है। हर व्यक्ति अपनी जाति व धर्म को श्रेष्ठ बताता है, और एतदर्थ लड़ता रहता है। इंसान यानी व्यक्ति ही परमात्मा तक पहुँच सकता है।क्योंकि किसी जाति या धर्म के होने से तो हमारा पक्षपात हो जाता है। बिना निष्पक्ष हुए न कभी कोई परमात्मा तक पहुंचा है न पहुंच सकता है। हिन्दू मुसलमान ईसाई होना धार्मिक होना नहीं है। यह धार्मिक होने का भ्रम हो सकता है,धर्म नहीं। धर्म का तो भीतर अनुभव होता है। प्रार्थना करने मन्दिर जाओ,मस्जिद जाओ, चर्च या गुरुद्वारे कहीं भी जाओ, लेकिन तुम्हारा कोई विशेषण न हो।तुम शुद्ध इंसान हो बस। यह स्वर्गिक जीवन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। इस युग के बुद्ध पुरुष ओशो ने तो हिन्दू, मुस्लिम , सिख, ईसाई आदि को कॉलरा,प्लेग, मलेरिया जैसी बीमारियां कहा। इसी युग के दूसरे बुद्ध पुरुष जिद्दू कृष्णमूर्ति ने तो कहा कि जब हम किसी को मारते है, तो वही हिंसा नहीं है। यह भी हिंसा है जब तुम कहते हो कि तुम हिन्दू हो या ईसाई हो क्योंकि तब तुम अपने को शेष समाज से पृथक कर रहे हो।
इसी तरह तमाम राष्ट्र भी अब नहीं चल सकते। या तो एक विश्व सरकार होगी या कोई विश्व नहीं होगा। हम देखते हैं कि जहां भी बंटवारा है, जहां पार्टीशन है, विभाजन रेखा है,वहीं संघर्ष है, वहीं युद्ध है। इस देश की वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा रही है।अब उसे यथार्थ करने का वक़्त आ गया है। अब अलग अलग सरकारें नहीं चल सकती। परमाणु बमों के निर्माण का यही वृहत योगदान है मंनुष्य के लिए कि हमारी समझ मे आ जाए कि अब अलग अलग राष्ट्र नहीं चल सकेंगे। और विज्ञान ने दुनिया को एक गांव मे परिवर्तित कर दिया है।
और एक महत्वपूर्ण बात कि अब तक मनुष्य को, मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति को स्वीकार नहीं किया गया है। बड़े बड़े आदर्श रख दिये गए जिसका परिणाम यह हुआ कि आदमी झूठा व पाखंडी और विकृत और हिंसक हो गया।आखिर इतने मनोचिकित्सकों की जरूरत क्यों पड़ी? और मजा यह कि मनोचिकित्सक स्वयं भी मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। कहना यह चाहता हूं कि हम प्रेम पर कहानियां लिख सकते है, उपन्यास लिख सकते हैं और फिल्में बना सकते हैं और इसके लिए अनेक पुरस्कार प्राप्त कर सकते हैं।किंतु प्रेम नहीं कर सकते।वह अपराध तो है ही तथाकथित धर्म के ठेकेदारों की नजर में पाप भी है। अगर प्रेम पाप है तब तो परमात्मा सबसे बड़ा पापी हुआ जिसने हमारे भीतर प्रेम का तत्व दिया, प्रेम की क्षमता दी। जिसने प्रेम को ही जीवन का स्रोत स्वीकार किया। प्रेम परमात्मा द्वारा मनुष्य को दिया गया सबसे बड़ा गिफ्ट है, प्रसाद है। यदि प्रेम न होता तो परमात्मा की खोज भी न होती। ज्ञानियों ने प्रेम को ही परमस्तमा कहा है। अस्तु हमे प्रेम को सहज स्वीकार करना होगा। समाज मे इतने अपराध क्यों हैं? मात्र प्रेम के अभाव के कारण। यह एक जागतिक सत्य है कि हर इंसान चाहता है कि वह किसी को प्रेम करे और कोई उसे प्रेम करे। यह मनुध्य का स्वभाव है, जैसे अग्नि का स्वभाव है गर्म होना, पानी का स्वभाव है ठंडा होना। उसी तरह मनुष्य का स्वभाव है प्रेम। इसे
अब स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। हां, किसी के जीवन मे किसी को जबरन हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
आज भूमण्डल ऐसी ही परिपक्व गर्भावस्था में है।यदि हमने समझदारी का परिचय दिया तो पृथ्वी पर मंनुष्य स्वर्गिक जीवन जी सकता है। और यदि ऐसा हम नही कर सके तो वैश्विक आत्मघात सुनिश्चित है।उसे कोई रोक नहीं सकता।
@स्वामी अगेह भारती की फेसबुक वॉल से
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