Monday, April 13, 2020

'सोशल डिस्टेंसिंग' की जगह 'फिजिकल डिस्टेंसिंग' शब्द ज्यादा बेहतर

  •   ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द से लोगों में जा रहा गलत संदेश 
  •   संपर्क तोड़ने की नहीं, शारीरिक तौर पर दूर रहने की जरूरत


शारीरिक रूप से सुरक्षित दूरी बनाकर आपसी प्रेम और भाईचारे का सन्देश देते राष्ट्रीय पक्षी मोर। ( फोटो इन्टरनेट से साभार )

अरुण सिंह, पन्ना। वैश्विक महामारी कोरोना वायरस का भीषण प्रकोप होने के बाद इस जानलेवा बीमारी से बचाव के लिये सबसे ज्यादा जोर 'सोशल डिस्टेंसिंग' पर दिया जा रहा है। यह शब्द मौजूदा समय हर किसी की जुबान से सुनने को मिल रहा है। 'सोशल डिस्टेंसिंग' का वास्तविक अर्थ क्या होता है, इस पर ध्यान देने व सोचने विचारने के बजाय जिसे देखो वही 'सोशल डिस्टेंसिंग' का कड़ाई के साथ पालन करने का मशविरा देता फिर रहा है। जबकि कोरोना संकट के बाद जिस तरह के हालात बने हैं, उसे देखते हुये 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द की जगह 'फिजिकल डिस्टेंसिंग' का प्रयोग किया जाना ज्यादा सार्थक और बुद्धिमत्ता पूर्ण होगा।
उल्लेखनीय है कि मौजूदा परिवेश में 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द का बहुतायत से उपयोग किये जाने पर अनेकों लोगों ने सवाल उठाये हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल 'सोशल डिस्टेंसिंग' की जगह 'फिजिकल डिस्टेंसिंग' पर जोर दे रहे हैं। समाज विज्ञानियों और डब्ल्यूएचओ का भी मानना है कि कोरोना वायरस के चलते एक-दूसरे से दूर रहने को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ कहने से लोगों में गलत संदेश जा रहा है .......डब्ल्यूएचओ ने भी अपनी प्रेस रिलीज में सोशल डिस्टेंसिंग की जगह फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द इस्तेमाल करने की बात कही है। डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल अपने ट्वीट में भी फिजिकल डिस्टेंसिंग ही लिख रहे हैं। एक प्रेस रिलीज में डब्ल्यूएचओ की महामारी विशेषज्ञ मारिया वान करखोव के हवाले से कहा गया है कि ‘सोशल कनेक्शन के लिए जरूरी नहीं है कि लोग एक ही जगह पर हों, वे तकनीक के जरिए भी जुड़े रह सकते हैं।  इसीलिए हमने इस शब्द में बदलाव किया है ताकि लोग यह समझें कि उन्हें एक-दूसरे से संपर्क तोड़ने की नहीं बल्कि केवल शारीरिक तौर पर दूर रहने की जरूरत है’।
लेकिन उसके बावजूद भारत में सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है और लॉ इंफोर्समेंट एजेंसिया इसे ध्येय वाक्य मानकर बैठ गई हैं। समाज वैज्ञानिकों का कहना है कि महामारी में सर्वाइव करना है तो लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग के बजाय अपने सामाजिक संबंध मजबूत रखने होंगे। अमेरिका की नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस और पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच शुरू से ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज जताते रहे हैं।  अपने शोधपत्र में  प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच ने युद्ध, आपदा और महामारियों से उबरने में सामाजिक संबंधों की भूमिका पर एक शोध किया है उनका कहना है कि आपातकाल में उन लोगों के बचने की संभावना ज्यादा होती है जो सामाजिक तौर पर सक्रिय होते हैं।  इस पत्र में कहा गया है कि बचने वालों में से एक बड़े तबके का कहना था कि वे इसलिए बचे क्योंकि किसी ने सही वक्त पर आकर उनके दरवाजे पर दस्तक दी या फिर समय रहते उन्हें फोन कर चेता दिया। यानी कि इस तरह के लोगों को जल्दी और आसानी से मदद मिल सकती है।
कड़वा सच तो यह भी है कि अधिक जनसंख्या घनत्व वाले इलाकों में सोशल डिस्टेंसिंग की बात करना दिवास्वप्न है। जहाँ 1 कमरे में 8 लोग रहते हों, एक ही टॉयलेट इस्तेमाल करते हों वहाँ सोशल डिस्टेंसिंग सिर्फ छलावा है। दरसअल सोशल डिस्टेंसिंग  ‘एकला चलो रे’ सरीखा गलत संदेश देता है।  यह सामुदायिक तौर पर कट कर रहने की सलाह देता है....यदि आपको इस्तेमाल करना ही था तो आप फिजिकल डिस्टेंसिंग का भी इस्तेमाल कर सकते थे।  राजनीतिज्ञों ने भी इस बारे में बोलना शुरू कर दिया है, छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने कहा है कि कोरोना से लड़ने के लिए 'सोशल डिस्टेंसिंग' की बजाये  'फिजिकल डिस्टेंसिंग' शब्द पर जोर दिया जाये। दरअसल सोशल डिस्टेंसिंग शब्द आगे चलकर खतरनाक परिणाम देगा, और यह आगे चलकर सामाजिक ढांचे के धराशायी होने की वजह बन सकता है। मीडिया सोशल डिस्टेंसिंग का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहा है। यह शब्द भाईचारा जैसे शब्द के विलोम शब्द के रूप मे इस्तेमाल किया जा रहा है। आगे चलकर हमे इस शब्द के प्रयोग के लिए जरूर अफसोस महसूस होगा।
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