Friday, April 3, 2020

कोरोना ने सिखा दिया जीवन जीने की कला

  • भीड़ और बाजार में खोकर भूल गये थे एकांत का आनंद 
  • अब समझे हैं सादा जीवन उच्च विचार की अहमियत 




अरुण सिंह,पन्ना। कोरोना वायरस ने कुछ ही दिनों में लोगों को जीवन जीने की कला सिखा दी है। जो काम पंडित, पादरी, पुरोहित, मौलाना और धर्मगुरु नहीं कर पा रहे थे, उसे एक अद्रश्य वायरस जो नग्न आँखों से दिखता भी नहीं, कर दिखाया है। यकायक लोगों की जरूरतें सीमित हो गई हैं, हमेशा भीड़ और बाजार में खोये रहने वाले लोग भी न सिर्फ परिवार के साथ समय गुजार रहे हैं बल्कि स्वयं के साथ रहने का भी आनंद ले रहे हैं। भारत के प्रज्ञा पुरुषों की सदियों से सादा जीवन उच्च विचार की देशना रही है। सही अर्थों में इसकी अहमियत अब समझ में आई है। शांति पूर्ण एकांत में रहते हुये स्वयं से साक्षात्कार का यह अवसर न चाहते हुये भी मिला है, जिसका लाभ और आनंद लेने जैसा है। यदि हमने आने वाले कुछ दिनों तक न्यूनतम जरूरतों के साथ एकांत में रहने की प्राचीन भारतीय परम्परा का सजगता के साथ निर्वहन किया तो कोरोना जहाँ स्वमेव विदा हो जायेगा वहीँ हमारी जीवन द्रष्टि में भी अभूतपूर्व बदलाव आयेगा, जो हमें आंत्रिक रूप से समृद्ध करेगा। हम अपनी बुनियादी और मूलभूत जरूरतों को पूरा करते हुए बिना किसी तनाव और आपाधापी के शांतिपूर्ण जीवन जी सकते हैं। लेकिन लालच और संग्रह की वृत्ति में उलझकर हम शांति से मुँह मोड़कर तनाव और अशांति की दिशा में अग्रसर हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में मेरे मित्र कबीर संजय ने फेसबुक पर लिखा है, जो मुझे प्रीतिकर और अच्छा लगा। मेरी सोच भी कुछ ऐसी ही है, लिहाजा उनकी पोस्ट को मैं यहाँ जस का तस साझा कर रहा हूँ।
थोड़ी सी जमीन, थोड़ा आसमान...
इंसान की जरूरतें बहुत सीमित हैं। लेकिन, लालच का कोई अंत नहीं। यूं तो मिनिमलिज्म के बारे में थोड़ा बहुत मैं पहले भी जानता था। लेकिन, हाल ही में नेटफ्लिक्स पर मैंने एक फिल्म देखी। मिनिमलिस्ट।
फिल्म को देखकर कुछ बातें समझ आईं। उन्हीं को आपके साथ साझा कर रहा हूं। वास्तव में अगर हम अपने आस-पास ध्यान गड़ाएं तो हमें वस्तुओं का अंबार दिखाई देगा। तमाम किस्म की वस्तुएं। बाजार हमारे अंदर हर क्षण असंतोष पैदा करता है। यह असंतोष व्यवस्था के प्रति नहीं है। यह असंतोष वस्तुओं के प्रति है। हम जो फोन इस्तेमाल कर रहे हैं। उससे असंतुष्ट हैं। जो लैपटाप इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे असंतुष्ट हैं। हमें अपनी कार छोटी लगती है। हमें अपना घर छोटा लगता है। टीवी का स्क्रीन छोटा है और उसमें फीचर भी बहुत ही कम है। हर फैशन के हिसाब से हमारे पास कपड़े नहीं हैं।
हर चीज के प्रति असंतोष को उकसाने के बाद बाजार हमें उसे खरीद लेने के लिए उकसाता है। दुनिया के बहुत उन्नत किस्म के दिमाग इसमें लगे हुए हैं कि कैसे किसी को असंतुष्ट किया जाए, फिर उसे खरीदने के लिए उकसाया जाए। हम अपने फोन के सत्तर फीसदी फीचर्स का इस्तेमाल नहीं करते या मामूली इस्तेमाल करते हैं। हमारे लैपटाप की क्षमताओं का बीस फीसदी इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। फिर भी बाजार हमें कहता है कि अब नया वर्जन आ गया है। इसे ले लो। हासिल कर लो।
आपने देखा होगा कि कैसे आईफोन के नए वर्जन के लिए लोगों की पहले से कतारें लग जाया करती थीं और लोग दुकान खुलने का इंतजार किया करते थे। जब लोग ऐसे नहीं खरीद पाते तो बाजार हमें बताता है कि कीमतें बहुत कम हो गई हैं। अब अगर चूक गए तो फिर कभी नहीं खरीद पाएंगे। बाजार हमारे अंदर एक लत पैदा करता है। यह एक तरह का एडिक्शन है। यकीन मानिये कि शराब और अफीम से कम यह एडिक्शन नहीं है। इस एडिक्शन के मारे लोग अपने आसपास तमाम किस्म की संपत्ति जमा करते, वस्तुओं का अंबार लगाते हुए, खुद से ऊबे हुए, अपने रिश्तों से ऊबे हुए, अपनी जिंदगी से ऊबे हुए, हमारे आसपास ऐसे तमाम लोग दिखाई दे जाते हैं।
बच्चे जिस समय छोटे रहते हैं, उस समय जो भी उनकी केयर करता है, उनके साथ समय बिताता है, उससे वे जीवन भर सबसे ज्यादा लगाव महसूस करते हैं। आज हमने अपना विकल्प उन्हें पकड़ा दिया है। उन्हें मोबाइल और आईपैड पकड़ा दिया है। वे अपने मां-बाप से कम और मोबाइल और आईपैड से ज्यादा लगाव महसूस कर रहे हैं। उसके साथ ज्यादा समय बिताते हैं। इसमें बच्चों का भला क्या दोष। यह एडिक्शन तो हम खुद उनमें पैदा कर रहे हैं।
दुनिया में एक विचार शृंखला है। मिनिमलिस्टों की। इसे सादा जीवन उच्च विचार भी कह सकते हैं। इसे थोड़ी सी जमीन-थोड़ा आसमान, तिनकों का बस इक आशियां भी कह सकते हैं। दुनिया में ऐसे भी लोग हैं, जो अपना सब कुछ सिर्फ एक पिट्ठू में बांधकर निकल पड़ते हैं। वे अपने सामान की सूची बनाते हैं कि किन सामानों के बिना उनका काम नहीं चलेगा और पता चलता है कि ऐसे सामानों की सूची सचमुच बेहद कम है। मुझे नहीं लगता है कि उनका जीवन हमसे कम संतोषदायक नहीं होता होगा। वे भरपूर जीवन जीते हैं। अपने आसपास वस्तुओं का अंबार लगाने की बजाय वे दुनिया और जीवन के अनुभवों का अंबार लगाते हैं। हर क्षण समृद्ध होते हैं।
अपने वार्डरोब में ऐसे कपड़ों को जमा करने से क्या फायदा, जिन्हें कभी पहना नहीं जाने वाला है। ऐसे पैसे जोड़ने से क्या फायदा, जिसका उपयोग नहीं किया जाने वाला। जिंदगी बहुत कीमती है और जीवन जीने के लिए सिर्फ एक बार मिलता है।
सचमुच जरूरतें बहुत सीमित हैं। एक बार गंभीरता से उस पर सोचा तो जाना ही चाहिए।
बाजारवाद के राक्षस की जान भी इसी तोते में छिपी है। इसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत है।
हमारा जीवन अनुभवों से हरा-भरा हो। वस्तुओं से घिरा-घुंटा न हो।
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