पद्मश्री बाबूलाल दाहिया। |
हमारे मध्यप्रदेश में चार प्रमुख बोलियाँ हैं जो बुन्देली, बघेली, मालबी तथा निमाड़ी आदि नामों से जानी जाती हैं। भाषा का सम्बंध हमेशा समाज से रहा है साथ ही संस्कृति से भी। क्योंकि वह सुख - दुःख, वैर-प्रीति, हँसी- ठिठोली, जीवन यापन के सारे आयामों में शरीक रही हैं। इस हिसाब से बोलियों का जुड़ाव मनुष्य समुदाय के अधिक करीब देखा जाता है। क्योंकि बोलियाँ मुख्यतः अपने अपने क्षेत्र की लोक ब्यौहार की समूची भाषा ही होती हैं। अलिखित ही सही पर उनका एक व्याकरण भी होता है। तभी तो अगर उसके अनुबंधों का पालन थोड़ा भी इधर उधर हुआ तो भाषा में विकृतता स्पष्ट दिखने लगती है।
बघेली पुराने रीवा, सतना, सीधी, शहडोल आदि चार जिलों की प्रमुख बोली थी। किन्तु अब सीधी शहडोल में उमरिया, अनूपपुर एवं सिंगरौली, मऊगंज, मैहर आदि 5 जिले और बन गये हैं। अस्तु अब यह 9 जिलों की बोली हो गई है। इनके अतिरिक्त भी बघेली कटनी के पूर्वी भाग और समूचे बाँदा जिले की भी बोली है। यहां तक कि कटनी के पश्चिमी भाग में जो बुन्देली बघेली के बीच की एक बोली पंचेली है, वह भी बघेली के काफी समीप है।
यद्दपि गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित राम चरित मानस को बिद्वान लोग अवधी की रचना मानते हैं। पर वस्तुतः वह अवधी के बजाय (गहोरी) में लिखी गई है, जो बघेली का ही एक लोक स्वरूप है। क्योंकि उसके क्रियापद बघेली के अधिक निकट हैं। यूपी वाले तो यूँ ही बाँदा को बुन्देल खण्ड का जिला मानते हैं। तब गोस्वामी तुलसीदास जी की जन्म स्थली राजापुर की गहोरी अवधी कैसे हुई ? उस माप दण्ड में तो उसे बुन्देली होनी चाहिए ? पर यदि समूचे बाँदा जिले की बोली को देखा जाय तो न तो वह बुन्देली है न अवधी ? बल्कि गहोरी है, जो पूरी तरह बघेली का ही लोक स्वरूप है ।
कुछ बिद्वान बघेली को पूर्वी मगधी गोत्र की बोली मानते हैं। पर वह वस्तुतः यहां के आदिम निवासी य कृषि आश्रित समाज की बोली है, जिसमें किसान मजदूर एवं कृषि अवलम्बित शिल्पी जातियां भी शामिल थीं। इसलिए बघेली में उन सभी के लोक ब्यौहार के समस्त क्रिया कलाप समाहित हैं। यूं भी जब शहर का कोई ब्यक्ति गेंहू, चावल आदि खरीदने जाता है तो मात्र 10-12 शब्दों में ही उसका काम चल जाता है। वह य तो झोला लेता है य बोरा लेता है ? साइकल लेता है य रिक्सा पकड़ता है ? इसी तरह पैसा-दाम, मोल-भाव, बाट- तराजू बस इतने कम शब्दों में ही उसका काम चल जाता है और गेहूं चावल उसके घर आ जाता है।
किन्तु वही गेहूं चावल जब किसान अपने खेत में उगाता है, तो खेत की तैयारी से लेकर कट मिज का उसके भंडार गृह में आते- आते लगभग दो ढाई सौ शब्द बनते हैं। पर वह शब्द खड़ी बोली के नही सभी बघेली के ही होते हैं। बघेली को पहले रिमही कहा जाता रहा है। इसका आशय शायद (रेवा ) यानी कि "नर्मदा के उद्गम के आस पास बोली जाने वाली बोली " से रहा होगा ? किन्तु बाद में अंग्रेजों द्वारा नागौद, सोहावल, कोठी, मैहर, जसो, बरौधा, चौबेपुर, रजोला, आदि इन तमाम राज्यों को भी रीवा से मिला कर जब बघेलखण्ड नामक एक एजेंसी बनी तो बुंदेल खण्ड की बोली बुन्देली य वैसों के क्षेत्र वैसवारी के तर्ज पर अंग्रेजों ने बघेल खण्ड की भी इस 7-8 राज्यों की मिली जुली बोली का नाम ( बघेली) रख दिया। क्योंकि इन तमाम राज्यों की बोली रिमही से थोड़ा भिन्न थी।
यूँ तो बघेली की शब्द सम्पदा 10 हजार शब्दों से अधिक है। किन्तु इसमें कुछ ऐसे शब्द भी हैं जिनके बोलने पर एक शब्द चित्र सा खिंच जाता है। उदाहरण के लिए एक शब्द है - " खाव चबाव" और दूसरा बघुआव। पर इनका उपयोग जब पूरे वाक्य के साथ किया जाता है तो आखों के सामने एक चित्र सा खिंच जाता है। उदाहरण स्वरूप इस वाक्य में देखें -- "मैं तो अपने राशन खातिर कोटेदार से पूछेव त,व, तो अइसय खाव चबाव अस दउरा ? "य कि , " मैं तो तहसीलदार साहेब से दाखिल खारिज करय क बिनती किहव त ,उय ,त अइसय बघुआय अस के परे ?" आदि आदि। "खाव चबाव" से जहां कुत्ते के काटने दौड़ने का दृश्य उपस्थित होता है वही "बघुआय के परब " से बाघ की तरह गुर्राना य दहाड़ने का दृश्य।
बघेली का लिखित साहित्य भले ही अन्य बोलियों से कुछ कम हो पर इसके मौखिक साहित्य को कमतर नही आंका जा सकता। इस मौखिक साहित्य में लोकगीत, लोक कथाए, पहेलियां, लोक आख्यान, मुहावरा लोकोक्तियां, कहावतें आदि अनेक बिधाएँ हैं। बघेली में एक- एक शब्द के इतने पर्यायबाची शब्द हैं जिन्हें देख कर न सिर्फ आश्चर्य होता है बल्कि यह भी पता चलता है कि यह बोली कितनी सम्रद्ध एवं पुरातन है। क्योकि अगर कोई बालक शैतानी करता है तो खड़ी बोली में उसका एक ही मानक शब्द होगा। " शैतान बालक" जिसे कह कर आप फुर्सत हो जांयगे। पर बघेली की शब्द सम्पदा देखिए कि उसमें उस शैतान बालक के " टन्टपाली, टपाकी, टनसेरी, अउठेरी, उपचीरी, उधुमधारी आदि बहुत सारे पर्यायबाची बन जांयगे।
इसी तरह खड़ी बोली के मार पीट को यदि बघेली में परिभाषित किया जाय तो-- मारिदेव, मसक देव, दउचिदेव, हपचदेव, धमकिदेव, पसोटदेव् , सोटदेव, दपचि देव, कचेरिदेव, लतिआयदेव, पेलिदेव, कउचि देव, कूचिदेव, कुचरि देव।" हपचि देव आदि बीसों शब्द देखे जाते हैं।
यह तो पर्याय बाची शब्द थे पर आप लगे हाथ बघेली के कुछ व्यंजनों का भी अवलोकन करें -
1. कढ़ी 2. फुलउरी 3. बरा 4. मुगउरा 5. कोरउरा 6. बरी 7. बगजा 8. इंदरहर 9. रसाज 10. रिकमछ 11. टहुआ 12. पना 13. लाटा 14. भुरकुंडा 15. खुरमा 16. मउहरी 17. फरा 18. गोलहंथी 19. महेरी 20. खिचरी 21. भगर 22. भउरा 23. गादा 24. बहुरी 25. बगरी 26. कोहरी / घुघुरी 27. सेमईं 28. खीर 29. तस्मई 30. चउंसेला 31.सोहारी 32. दरभरी पूरी 33. उसिना 34. पेंउसरी 35. खोझरी 36. पनिहंथी रोटी 37. भरता 38. मसलहा 39. लप्सी 40. लाई-लुड़ुइया 41. गुराम 42. मिठखोर 43. रसियाव 44. धोख 45. कुसुली 46. पपरी 47. अंगाकर 48. रोट-पंजीरी 49. लउबरा 50. काची 51. फांकी कोंहड़ा के 52. कोंहड़उरी बरी 53. कोरउरी बरी 54. चरपरहा 55. करी-मठुली 56. अमावट 57. खाझा 58. रहिला (चना) के भाजी-साग 59. मालपुआ 60. घाठ / दरिया 61. कोदई के भात 62. चिल्ला 63. लपकउरी (नाम सुनेन खाएन नहीं) 64. निगरी 65. कलउंजी 66. मुरबाती 67. करोनी 68. चुरबा रहिला नोन मसाला मिलाय के 69. छउंका माठा 70. दार-भात 71. दूध-भात 72. माठा-भात 73. दूध-रोटी 74. माठा-रोटी 75. घाठ-माठा 76. कोदई-भाजी 77. आमा के अथान /अचार / रक्का (पनिहां अउर तेलहा) 78. आमा के छुन्ना के अचार 79. नोनचा 80. अमरा के अचार 81. अमरा के चटनी 82. अमरा के मुरब्बा 83. भूंजा भात 84. जोनरी के रोटी चुन्ना मुन्ना कइके 85. कनेमन रोटी 86. खिचरा 87. रहिला के भाजी नोन के डर्रा (खेत मा खोंट के) 88. रहिला के रोटी नोन के डर्रा 89. चना क होरा 90. मटर क होरा
इस तरह यह कहना गलत न होगा कि बघेली अपने 9-10 जिले वाले इस भू-भाग में लोक व्यवहार की सम्पूर्ण भाषा है, जिसमें जरूरत भर के शब्दों की बहुत बड़ी शब्द सम्पदा मौजूद है।
00000
No comments:
Post a Comment