Sunday, August 9, 2020

मूलनिवासियों को हिस्ट्री में नहीं एंथ्रोपोलाजी में मिली है जगह

प्रचलित किताबें इतिहास की गणना करते हुए गुफा मानव से सीधे वैदिक काल में प्रविष्ट हो जाती हैं। बिना यह बताए कि वे लोग कौन थे जो इन गुफाओं में रहा करते थे। पुरा पाषाण काल से ताम्र और लौह युग तक जिन मानवों के हम औजार और शैल चित्र ढूंढ़ते हैं वे मानव हमारे प्रचलित इतिहास में कहां हैं क्या वे आज भी हमारे आसपास ही हैं? यह बताने वाली सबसे महत्वपूर्ण कड़ियाँ इतिहास से मिसिंग हैं। 

सीधे वैदिक युग, उत्तर वैदिक युग से होते हुए महाजनपदकाल, बुद्ध,महावीर ,मौर्य, गुप्त , गुर्जर प्रतिहार,पाल, राष्ट्रकूट से निकलते हुए मुस्लिम आक्रांताओं से राजपूतों को लड़ते हुए इतिहास हमें बताया गया है। अचानक रानी दुर्गावती को पढ़ते हुए गौंडवाना भारतीय इतिहास में अवतरित होता है और अंग्रेजों के अवतरित होने के ठीक पहले मराठे गौंडवाना के अस्तित्व को उनके मान्य राजवंश के साथ समाप्त कर देते हैं। यह नट शेल में भारतीय इतिहास का क्रम है जिसमें न जाने क्यों मूलनिवासियों को स्थान नहीं दिया गया। जबकि  इतिहास शुरु उनसे हुआ और समाप्त भी लेकिन विद्यार्थियों से कहा गया कि मूलनिवासियों के बारे में पढ़ना है तो इतिहास मत पढ़ो मानवशास्त्र और नृतत्वशास्त्र पढ़ो। 

साफ कहें तो हमारे वास्तविक स्थानीय पुरखों को हमने इतिहास में नहीं मानवशास्त्र में स्थान दिया है। होमोसैपियंस की तरह। नियेंडरथल मानव, क्रोमेग्नन मानव की अगली पीढ़ियों की तरह। दूसरे शब्दों में भारतीय इतिहास लेखकों का साफ संदेश है कि मूलनिवासियों के बारे में जानना है तो इतिहास पढ़ने की जरूरत नहीं है। इस आपराधिक भूल के लिए कौन दोषी है, जब इसकी तहों में जाते हैं तो क्रमबद्ध इतिहास लेखकों के समूहों में सभी धाराओं के इतिहासकार दोषी निकलते हैं। वे वामपंथी इतिहासकार भी उतने ही दोषी हैं जो आज मूलनिवासियों को वैमन्स्यता फैलाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। 

हैरत है कि इस दिशा में सोचने की चिंतनप्रक्रिया मुझे किसी विचारधारात्मक साहित्य को पढ़ते हुए नहीं आई। हुआ ये कि मैं बस अपने शहर सागर का क्रमबद्ध इतिहास खोज रहा था। यह इतिहास सन् 1650 में लक्खीशाह बंजारा और गढ़पहरा के शासक ऊदनशाह तक पीछे जाकर अटक जाता था। फिर मैं देखता कि शहर के मध्य से लेकर लगभग सभी दिशाओं में फैली कठोर चट्टानों की टौरियों (पहाड़ियों) में गुफाएं बनी हैं जिनमें से अधिकांश में गुहामानवों द्वारा बनाए चित्र बने हैं। इन चित्रों में मौथले हथियारों से प्राणियों के शिकार से लेकर धनुष बाण और बर्छों जैसे परिष्कृत हथियारों से शिकार के दृश्य बने हैं। इन शैलचित्रों में दर्शायी सामग्री में घोड़ों, रथों पर जा रहे जुलूस, लश्कर या मानवसमूहों की यात्राओं की दृश्यावलियां भी हैं। यानि इन तस्वीरों की भी कालक्रमों के अनुसार आधुनिक होती गई अपनी निरंतरता है। तब मुझे जिज्ञासा हुई कि मेरे शहर के बसने से पहले से जो लोग रह रहे थे वे कौन थे और अब कहाँ हैं। मेरी खोज जल्द ही नरयावली से लेकर गढपहरा से सटे हुए जंगली इलाकों में रह रहे सौंर और राऊत आदिवासियों तक पहुंची। सागर शहर के आसपास गौंड भी हैं लेकिन उनके तौरतरीकों, रहनसहन और मानसिक स्तर से लगा कि इनसे ज्यादा आदिम सौंर और राऊत हैं। शहर से उत्तर दिशा में मालथौन और यूपी के ललितपुर जिले के वनांचलों तक बढ़ें तो सहरिया मिलना आरंभ हो जाते हैं। बारीकी से देखने पर इन सभी जनजातियों की शारीरिक संरचना यथा आकार, रंगरूप और जीवन पद्धति में आंशिक फर्क भी महसूस किया जा सकता है। 

इनके बारे में और जानने की जिज्ञासा के दौरान मुझे यूट्यूब पर डा सूरज धुर्वे नामक सज्जन के व्याख्यानों से कुछ सूत्र मिले। वे बता रहे थे कि मूलनिवासी जनजातियों में फर्क का आधार उनके कोये से ही आरंभ हो जाता है। जनजातीय गौंडी भाषा में गुफाओं को कोया कहा जाता है और उनमें रहने वालों को कोईतूर। हर कोये के पुरखे अलग अलग हैं जिन्हें जंघापेन और लिंगापेन कहा जाता है। इन कोयों की आबादियों से मिलकर गढ़ बनते हैं। सभी कोयों में सूर्य, चंद्रमा, साज व अन्य वृक्षों को तथा अपने पेनों यानि पुरखों को आदर देने के लिए पूजा जैसे संस्कार हैं। हालांकि मैंने डा धुर्वे के पूरे व्याख्यान नहीं देखे सुने लेकिन जितने मिल सके उसमें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि गौंडी संस्कृति और वैदिक संस्कृतियों में बोली भाषा जैसी बेसिक भिन्नताओं को छोड़ दें तो मान्यताओं में गजब की समानता है। यहां तक कि व्यक्ति को अपनी मेधा, प्रज्ञा या विवेक को किस तरह ऊंचे स्तरों की ओर परिमार्जित करते रहना चाहिए इसके लिए सैद्धांतिक समीकरण ही गौंडी में है। इस तीन स्तर के चिंह को प्रत्येक गौंडी परिवार त्रिशूल जैसे बाने के आकार में अपने कुल देवता के साथ पूजता है। यह सिद्धांत ध्यान के द्वारा कुंडलिनी शक्ति या ऊर्जा के उर्धगमन से बिल्कुल मेल खाता है। ऐसी बहुत सी समानताएं गौंडी संस्कृति में दिखाई दीं जिन्हें डा.धुर्वे एक मान्य गौंडी संस्कृति विशेषज्ञ की भांति बताते हैं। डा धुर्वे मुझे जनजातीय प्रतिक्रियावादी से अधिक बेहतरीन स्कालर लगे जिनसे सभी को हमारे देश के मूलनिवासियों के बारे मेंवह जबरदस्त जानकारी मिल सकती है जो हमारे इतिहास की मिसिंग कड़ियों को जोड़ देती है। इतिहास के विद्यार्थियों को खास तौर पर उनके व्याख्यानों में बताई गई सूचनाओं को समझना चाहिए। हां यदि उनके व्याख्यानों में हमें किसी तरह के वैमनस्यता फैलाने वाले अलगाववादी तत्व मिलते हैं तो उन तत्वों को छोड़ दिया जाए। 

मूलनिवासियों के बीच एक सांस्कृतिक संकट की बैचेनी हमेशा से मौजूद रही है जो इन दिनों मुखर हो रही है। कुछ वर्ग और विचारधाराएं इस बेचौनी को भड़का कर इसका राजनैतिक इस्तेमाल करने में सक्रिय हैं। खासतौर पर मध्यभारत के आदिवासियों की अपने सांस्कृतिक प्रतीकों के संरक्षण बाबत चिंता एकदम जायज और स्वाभाविक है। वस्तुतः यह चिंता सरकारों की ओर से एड्रेस होना चाहिए थी जिसे राजनैतिक शोषकों की ओर से रखा जा रहा है। गौंडी भाषा और बोली को संविधान की अनुसूची में शामिल करना, बहुलता वाले स्कूलों में गौंडी भाषा की पढाई, गोटुल परंपराओं को शैक्षणिक मान्यता व संवर्धन ,गौंडी देवी देवताओं और उनके सांस्कृतिक पर्वों और कलाओं को सरकारी संरक्षण जैसे कुछ काम ऐसे हैं जिनसे दरसल देश की सांस्कृतिक विविधता और पारंपरिक ज्ञानकोष में समृद्धि होगी।  पर्यटन के मौके और व्यवसाय बढ़ेंगे। एक बड़ी जनजातीय आबादी पर खर्च किए जा रहे विशालकाय बजट उनके पोषण में उपयोगी और स्वीकार्य नहीं हो रही क्योंकि वे मानसिक और सांस्कृतिक रूप से आश्वस्त नहीं हैं। मुख्यधारा की उच्चशिक्षाएं, वैज्ञानिक व तकनीकी नवाचार उनमें तभी ठीक से ग्राहृय होंगे जब उन्हें सांस्कृतिक आश्वस्ति व अधिकार मिलेगा। देश की उत्पादकता में इस विशालकाय समुदाय का सक्रिय योगदान तभी आरंभ हो पाएगा।

यह पहले ही हो जाता तो  मिशनरीज को जनजातीय समूहों में फैलने का अवसर ही न मिलता। आजादी के बाद प्रभावी रहे शासकों की कोशिशें मूलनिवासियों को वास्तविक अधिकार दिलाने से अधिक उन्हें सांस्कृतिक इतिहास का शोपीस बनाने की कोशिश रही। मध्यप्रदेश के भारतभवन में अशोक वाजपेयी ने संस्कृति सचिव रहते हुए गौंडी संस्कृति के संरक्षण में जितने भी कार्य किए वे इसी दिशा में थे। जरूरत थी आदिवासियों के बीच जाकर उनकी सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान और संरक्षण की लेकिन यह नहीं करके यह कार्यक्षेत्र उन मिशनरीज़ के लिए खुला छोड़ दिया गया जो आजादी के पहले ही अपने पैर जमा चुकी थीं। और सरकारें मानव विकास संग्रहालय बना कर आदिवासियों की सांस्कृतिक चेतना को अधिकार संपन्न करने के बजाए उन्हें म्यूजियम की वस्तु बनाने पर तुली रही। यह कतई न समझा जाए कि आदिवासी समुदाय मिशनरीज की गतिविधियों से सहमत होकर ईसाई बन रहे थे। उस समय भी सांस्कृतिक संकट का भय उनमें था जिसका फायदा वामपंथी विचारधाराओं ने अपने हक में उठाया और राजनीतिक इस्तेमाल किया। आदिवासी समस्या के वास्तविक मूल में वामपंथी भी नहीं गये न ही उन्होंने इसका हल चाहा। 

देश की आरंभिक सरकारों की विफलता की सही पहचान कर गलती दुरुस्त करने का पूरा मौका अब संघनिष्ठा भाजपा सरकारों के पास है। उनकी वनवासी परिषदों के कार्य व्यापक हैं पर उनके सार्थक परिणाम तभी होंगे जब मूलनिवासियों से उनके लिए, उनकी ही भाषा और संस्कृति में संवाद होगा। कोई मूलनिवासियों को संस्कारहीन मान कर उन्हें सांस्कृतिक पाठ पढ़ाने की कोशिश न करे यह मूलमंत्र है। मूलनिवासियों का सांस्कृतिक वैभव पूरी तरह स्थानीय पृष्ठभूमि से अर्जित और कई मायनों में बाकी संस्कृतियों से कहीं अधिक समृद्ध है। ...और लगता है वर्तमान सरकार ने इस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश की है। इंडीजीनस नालेज के लोकव्यापीकरण के सराहनीय कार्यक्रम मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विश्वविद्यालयों के माध्यम से शुरु किए हैं। लेकिन इससे भी जरूरी है स्थानीय स्तर पर जाकर गौंडी जैसी मूलसंस्कृतियों को सरक्षण देकर बढ़ावा देना। 

@रजनीश जैन, सागर

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