Friday, October 23, 2020

प्रदेश के 40 फीसदी जंगल पर निजी कंपनियों का होगा कब्ज़ा ?

  •  बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर प्रदेश सरकार ने लिया निर्णय 
  • जंगल पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों की जिंदगी होगी प्रभावित 


।। अरुण सिंह ।।

सदियों से जंगल के बीच प्राकृतिक जीवन जीने वाले आदिवासियों की जिंदगी में खलल पैदा करने की तैयारी की जा रही है। बिगड़े वनों को सुधारने तथा अतिक्रमण की समस्या से निजात पाने के नाम पर प्रदेश सरकार ने अजीबोगरीब फैसला लेकर मध्यप्रदेश की 37,420 वर्ग किमी. वन भूमि निजी कंपनियों को सौंपने जा रही है। सरकार के इस निर्णय से व्यापार करने वाली निजी कंपनियों को निश्चित ही फायदा होगा लेकिन जंगल और वनोपज पर पूरी तरह से निर्भर रहने वाले आदिवासियों की आजीविका कैसे चलेगी? यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है, जिसका फिलहाल कोई जवाब नहीं है।    

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश का 40 फीसदी जंगल प्रदेश सरकार ने बिगड़े वन क्षेत्र को दोबारा से घने जंगल में तब्दील करने के लिए निजी कंपनियों से हाथ मिलाने का निर्णय लिया है। हर समय आदिवासियों के कल्याण व उनके हितों की रक्षा करने का माला जपने वाली सरकार जंगल को अपना सब कुछ समझने वाले आदिवासियों को जड़ से उखाड़कर उन्हें जंगलों से ही बेदखल करने की योजना बना रही है। इस योजना से बिगड़े वनों और पर्यावरण का कितना सुधार होगा यह तो भविष्य बतायेगा लेकिन इतना तय है कि निजी कंपनियां अपने हितों से समझौता करने वाली नहीं हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है, जाहिर है कि वे यहाँ भी जनकल्याण की भावना से नहीं बल्कि व्यापार करके लाभ कमाने के लिये आयेंगी। मालूम हो कि मध्यप्रदेश में  जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने, राज्य के जंगलों की परिस्थितिकी में सुधार करने और आदिवासियों की आजीविका को सुदृढ़ करने के नाम पर राज्य के कुल 94,689 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 37,420 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है। इस संबंध में मध्यप्रदेश के सतपुड़ा भवन स्थित मुख्य प्रधान वन संरक्षक द्वारा अधिसूचना जारी की गई है। 


पन्ना जिले कल्दा पठार के आदिवासियों का जीवन वनोपज पर निर्भर। 

ध्यान रहे कि इस प्रकार के बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में बकायदा वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं और इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। इस संबंध में  वन विभाग के एक पूर्व अधिकारी ने बताया कि जहां आदिवासी रहते हैं तो उनके निस्तार की जमीन या उनके घर के आसपास तो हर हाल में जंगल नहीं होगा। आखिर आप अपने घर के आसपास तो जंगल या पेड़ों को साफ करेंगे और मवेशियों के लिए चारागाह भी बनायेंगे। अब सरकार इसे ही बिगड़े हुए जंगल बताकर अधिग्रहण करने की तैयारी में है। जबकि राज्य सरकार का तर्क है कि बिगड़े हुए जंगल को ठीक करके यानी जंगलों को सघन बना कर ही जलवायु परिवर्तन और परिस्थितिकीय तंत्र में सुधार संभव है।

जानकारों का यह कहना है कि प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुये हैं। मध्यप्रदेश के जंगल का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। शेष क्षेत्र को बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है, अधिग्रहण नहीं। यह बिगड़े जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं, जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय अपनी निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं। सरकार के इस निर्णय से यह सवाल उठ रहे हैं  कि अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति ली गई है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा? प्रदेश में अभी तक व्यावसायिक लोगों की गिद्ध द्रष्टि से जो जंगल बचा हुआ है उसमे स्थानीय निवासियों व आदिवासियों का अहम् रोल है। जंगलों को सुरक्षित, संरक्षित और बचाने की कुंजी इन्ही के पास है। इन्हे बेदखल करके या अनदेखा कर जंगल व पर्यावरण का संरक्षण कठिन है। 

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