- बाँदा-महोबा में मौरम-पहाड़ों की पताल तोड़ खदानों को किया ड्रोन व विदेशी कैमरों से शूट
- मौरम और पहाड़ खदानों में हैवी ब्लास्टिंग से मरे मजदूर परिवार से सुनी आप बीती
- पर्यावरण उजाड़ के रोजगार में सरकार,माफिया और समाज की असंवेदनशीलता को परखा
केन नदी में रेत उत्खनन की शूटिंग करते मीडिया हाउस से जुड़े लोग। |
डेमोक्रेसी शीर्षक से तीन देशों इंडिया,रसिया और पोलैंड के सोशल एक्टिविस्ट और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (एमनेस्टी इंटरनेशनल) के कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमले व उनकी कार्यशैली पर यह विशेष डाक्यूमेंट्री बन रही है। बाँदा की लाल बालू (मौरम) खदानों और महोबा के ग्रेनाइट स्टोन उद्योग में अवैध खनन, स्टोन क्रेशर के गुबार से बर्बाद होता पर्यावरण,बंजर होती खेती,रहवासियों पर इसके दुष्परिणाम का रिसर्च कर इस मसले को डाक्यूमेंट्री में शामिल किया गया है।
उल्लेखनीय है कि अवैध उत्खनन के कारोबार में किसी न किसी रूप में संलिप्त लोकल मीडिया से गोपनीयता रखकर डाक्यूमेंट्री की शूटिंग की गई। डाक्यूमेंट्री बनाने वाले फ्रेंच-जर्मन मीडिया हाउस से जुड़े लोगों के बुंन्देलखण्ड आने की खबर केंद्र सरकार की एम्बेसी को थी। इस डाक्यूमेंट्री का प्रसारण विदेशी मीडिया हाउस में किया जायेगा ताकि वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र पर बढ़ते खतरे और पर्यावरण के प्रति बेपरवाह नीतियों का ग्लोबल विश्लेषण हो सके।
मिली जानकारी के मुताबिक यूपी बुंन्देलखण्ड में पर्यावरण मुद्दे पर लगातार बीते 2 व 3 जनवरी को (दो दिन) फ्रेंच-जर्मन मीडिया से जुड़े भारतीय पत्रकारों ने डाक्यूमेंट्री शूटिंग की हैं। बाँदा के बाशिंदे सामाज़िक कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने बताया कि डेमोक्रेसी को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे सामाज़िक कार्यकर्ता,ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट,वैकल्पिक मीडिया से जुड़कर पर्यावरण मसलों पर लगातार काम कर रहे जुझारू लोगों पर हो रहे हमलों से सारा विश्व हलकान है। खासकर जल-जंगल-ज़मीन को बचाने में जो व्हीसिल ब्लोअर/सोशल एक्टिविस्ट सक्रिय हैं, उन्हें हतोत्साहित करने के लिए अक्सर सुनियोजित घटनाक्रम हो रहे हैं। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के भारत में काम करने पर अंकुश रखा जा रहा है। वहीं ग्रीनपीस जैसे गैर सरकारी संगठन पर रोक लगा दी गई है। बतलाते चलें ग्रीनपीस भारतीय आदिवासी समाज के हकदारी, मसलन जंगलों पर उनके मौलिक अधिकार व मूल निवासी होने की मुखरता से एडवोकेसी करती रही है। यह अलग बात है कि आदिवासियों को प्रायोजित मीडिया ने कभी नक्सली, तो कभी देशद्रोही तक कह दिया। कमोवेश यही दिल्ली किसान आंदोलन से जुड़े लोगों पर आरोप लगाये गये हैं, ताकि लोकतंत्र में हक़ की आवाज उठाने वाले कमजोर किये जा सकें। ठीक कुछ ऐसा ही बुंन्देलखण्ड में मौरम / केन नदी की लाल बालू कारोबार से जुड़े सफेदपोश ठेकेदार व महोबा में पहाड़ खदानों,स्टोन क्रेशर उद्योग में पर्यावरण,मजदूरों के साथ सत्ता समर्थित माफियातंत्र की बदौलत करते हैं।
हाल ही में इसकी बानगी के लिए महोबा में विस्फोटक व्यापारी इन्द्रकांत त्रिपाठी हत्याकांड से जुड़े मामले पर स्पष्ट हुआ है। तत्कालीन एसपी गत चार माह से उच्च न्यायालय कुर्की,लुकआउट नोटिस के बावजूद फरार हैं। जाहिर हैं पर्यावरण के ताने-बाने को समूल मिटाने में पूरा संगठित गिरोह शामिल हैं, जिसमें राजनीति, रुपया, रसूख तीनों के साथ मुख्यधारा की पत्रकारिता का बौनापन भी प्रमुख कारण है। फ्रेंच व जर्मन मीडिया टीम ने बाँदा और महोबा की खदानों में जाकर शूटिंग की तो वहीं खदानों में मृतक मजदूरों के आश्रित परिवारों के अब आगे गुजर-बसर का आंकलन भी किया। इस पूरे दो दिवसीय दौरे पर वीडियो वालेंटियर सामुदायिक संवाददाता और सामाज़िक कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित साथ रहे। उनकी बतलाई लोकेशन पर टीम ने गंभीरता से आंकड़ों का अनुश्रवण कर डाक्यूमेंट्री शूटिंग की हैं। टीम ने अपने नामों का खुलासा डाक्यूमेंट्री रिलीज न होने तक बनाये रखा है जिससे रिसोर्स व डेटा संरक्षित रहें।
@पत्रकार एवं सामाज़िक कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित, बाँदा
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