Wednesday, February 17, 2021

सैकड़ों साल पहले किन अनाजों की होती थी खेती

  • आखिर कितना पुराना है खेती किसानी का इतिहास
  • फिर खेती में कैसे शुरू हुआ बदलाव का सिलसिला 

।। अरुण सिंह,पन्ना।। 

मोटे अनाजों में से एक  ज्वार के भुट्टे, जो अब कम ही देखने को मिलते हैं।  

मनुष्य के क्रमिक विकास की कहानी जितनी रोचक और संघर्षों से परिपूर्ण है, खेती किसानी का इतिहास भी उतना ही रोचक एवं महत्वपूर्ण है। हजारों  वर्ष पूर्व जब न तो लोहे की खोज हुई थी और न ही आग के बारे कोई जानकारी थी, उस समय मनुष्य पूरी तरह जंगली था और शिकार करके अपनी भूंख मिटाता था। खेती किसानी के इतिहास और उसके क्रमिक विकास के संबंध में बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि खेती का इतिहास लगभग 10 हजार वर्षो का ही है, जब मनुष्य 40-- 50 हजार वर्ष पहले गुफाओं से निकल नदियों के किनारे झोपड़ी बनाकर रहने लगा। शुरू - शुरू में वह कुछ मोटे अनाज सांवा ,काकुन, कुटकी, बाजरा आदि के बीज बस्तियों के पास के मैदान में  छिड़क देता, जिसे पशु चरने और पक्षी दाने चुगने के लिए आते एवं वह उनका शिकार करता। लेकिन बाद में आग की खोज के पश्चात वह उन्हें उबाल या भूनकर खाने लगा और पशुओं को भी सवारी, हल, छकड़ा आदि में उपयोग करने लगा।

 लेकिन आज से लगभग 28 सौ वर्ष पहले जब मनुष्य ने लोहे की खोज कर ली तो वह  नदियों का किनारा छोड़ मैदान में बसने लगा। क्योंकि अब वह कुआँ खोद कर उसका पानी पी सकता था। 40 हजार वर्ष पहले की आग की खोज, बीस हजार से 10 हजार वर्ष के बीच की पहिये की खोज के पश्चात यह तीसरी ऐसी खोज थी जिसमे समाज मे अमूल चूल परिवर्तन आया। क्योकि लोहे की खोज के बाद ही अनेक रोजगार धंधे विकसित हुए और ब्यवस्थित खेती भी शुरू हुई। लोहे की खोज से मनुष्य की जिंदगी में आमूलचूल बदलाव आना शुरू हो गया। खेती किसानी को सुगम और बेहतर तरीके से करने के लिए उपयोगी औजार बनाये जाने लगे फलस्वरूप मवेशियों को पालने का भी सिलसिला शुरू हुआ। अपने देश में आजादी के दो दशक बाद तक किसान आम तौर पर मोटे देशी अनाज ही उगता रहा है। बाद में अनाजों की नई किस्मों का विकास हुआ फलस्वरूप मोटे अनाजों की जगह नई किस्मों ने ले लिया। मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए गोबर की खाद का उपयोग करने की जगह किसान अधिक उपज पाने की लालसा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का भी उपयोग करने लगा।  

आबादी बढ़ने के साथ अनाज की खपत भी बढ़ने लगी और अधिक उपज के लिए उसी अनुपात में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग भी बढ़ गया। खेती में उपयोग किये जाने वाले पुराने औजारों की जगह आधुनिक यंत्रों व मशीनों ने ले ली, जिससे बैलों का भी उपयोग कम हो गया। खेती के पुराने औजार तो पुरातत्व की चीज बनकर रह गये। ऐसे अनेकों खेती के पुराने औजार व उपकरण हैं जिनका उपयोग लगभग बंद ही हो गया है, आलम यह है कि नई पीढ़ी के लोग उन औजारों और उपकरणों का नाम तक नहीं जानते। ऐसा ही एक पुराना उपकरण कोनइता है, जिसके बारे में रोचक जानकारी पद्मश्री बाबूलाल दाहिया जी ने दी है। इन्होने धान की तक़रीबन 200 देशी किस्मों का संरक्षण किया है। तो आप भी जाने धान दरने वाले इस पुराने उपकरण की रोचक दास्तान -    

 धान दरने का आदिम यन्त्र कोनइता


धान दरने के लिए उपयोग में लिया जाने वाला पुराना यन्त्र कोनइता या चकरा। 

जी हां यह कोनइता है जिसे कहीं-कहीं चकरा भी कहते हैं। कोनइता इसलिए कि यह घर के एक कोने में स्थायी रूप से गड़ाकर स्थापित कर दिया जाता है और चकरा इसलिए कि यह दराई करते समय चारो ओर घूमता या चक्कर लगाता है। यह आदिम मनुष्यो द्वारा निर्मित धान, कोदो, कुटकी, सांवा  आदि दरने का मिट्टी का यंत्र है। इसके दो खण्ड होते हैं। जमीन में स्थायी रूप से खूटी के साथ चिपके भाग को थरी कहा जाता है और ऊपरी घूमने वाले भाग को चकरा।

इसके लिए थरी के छेद से जमीन में एक लगभग डेढ़ हाथ की खूटी गड़ी रहती है तथा उसको ऊपर सहारा देने के लिए एक चपटी छेद दार लकड़ी होती जिसे पारी कहते हैं। साथ ही किनारे एक ओर मुठिया भी जिसे पकड़ कर घुमाया जाता है। चकरा अकेले घुमाने का यंत्र नही है। इसे दो जन साथ - साथ घुमाते हैं, जिससे धान, कोदो की भूसी अलग हो जाती है। फिर चावल को मूसल से कूटा जाता है, तब वह खाने लायक होता है।

   इसके ऊपर अर्ध छेद युक्त एक लकड़ी का और जुगाड़ होता है जिससे चकरा हल्का चलने लगता है। उसे आरी जोती कहते हैं, जो सुतली के सहारे बीच की पारी से इस तरह बाध दी जाती है कि चकरे का कुछ वजन खूटी में आ जाता है और वह घूमने में हल्का हो जाता है। यह मात्र काली मिट्टी में धान की भूसी मिलाकर बनता है। क्योंकि काली मिट्टी का छरन जल्दी नहीं होता। एक चकरा अपने जीवन काल में लगभग 25- 30 क्विंटल धान की दराई कर लेता है जो एक किसान परिवार के साल भर के भोजन के लिए पर्याप्त होती है। इसमें एक विशेषता यह भी है कि इसे महिलायें ही कलात्मक ढंग से बनाती हैं। जिसमें उनका ज्ञान, कौशल स्पस्ट दिखता है। लेकिन अब दराई के बिजली चलित यन्त्र आ जाने से अब यह चकरे पुरातत्व की वस्तु का स्थान लेते जा रहे हैं।

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3 comments:

  1. श्रीमान, आप बहुत बेहतरीन लिखते है...कुछ दिन पहले चिट्ठा चर्चा से आप के इस लेख का लिंक मिला ...एक ही सांस में पढ़ गया...वाह...आप का लेख बहुत सी अहम् जानकारी समोए हुए है। उसी दिन कमैंट लिखना भी चाहा लेकिन नहीं लिख नहीं पाया...बहुत बढ़िया... आप के दूसरे लेख भी देखने हैं अभी मुझे।

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  2. लोगों की बदकिस्मती ही कहूंगा कि लोगों तक इस तरह का बेहतरीन कंटैंट पहुंच ही नहीं रहा है...लिखने वाले तो अपना काम निरंतर कर ही रहे हैं।

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  3. हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद डॉ. प्रवीन चौपरा जी।

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