- किसी की भी कमी से होता है प्राकृतिक चक्र व संतुलन प्रभावित
- समय का तकाजा है कि हम समझें सह- अस्तित्व की अहमियत
।। अरुण सिंह ।।
यह पृथ्वी हमारे सौरमंडल का सबसे ज्यादा जीवंत और सुंदर ग्रह है। यह खूबसूरत है क्योंकि पृथ्वी में न जाने कितने प्रकार की वनस्पतियां, पेड़-पौधे, जीव-जंतु और पक्षी हैं। यह पृथ्वी इन सब का घर है, इसमें मानव भी शामिल है। लेकिन इस जीवंत और हरे-भरे ग्रह को मानव ने इतने गहरे जख्म दिये हैं कि प्रकृति का पूरा संतुलन ही डांवाडोल हो गया है। हमने अपनी महत्वाकांक्षा और निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु बड़ी बेरहमी के साथ धरती की हरियाली को उजाड़ा है। जिससे न जाने कितने जीव जंतु बेघर होकर विलुप्त हो चुके हैं। हमारी नासमझी पूर्ण बर्ताव का खामियाजा अब हमें ही भोगना पड़ रहा है।
अब यह निहायत जरूरी हो गया है कि हम समझदारी दिखायें और प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ बंद करें। यह पृथ्वी जितनी हमारी है उतनी ही पेड़-पौधों, वनस्पतियों, जीव-जंतु और पक्षियों की भी है। हमें सह- अस्तित्व की अहमियत को समझना होगा, क्योंकि गहरे में सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी की भी कमी पूरे प्राकृतिक चक्र व संतुलन को प्रभावित करती है। अभी तक हम जिस सोच और समझ के साथ जिए हैं वह रास्ता विनाश की ओर जाता प्रतीत होता है। लेकिन हम विनाश की आ रही आहट को अनसुना कर रहे हैं और अपने को श्रेष्ठ साबित करने तर्क भी गढ़ लेते हैं। मनुष्य द्वारा बनाई गई कोई चीज जब नष्ट की जाती है तो उसे बर्बरता कहा जाता है, लेकिन हम प्रकृति द्वारा सृजित किसी चीज को जब नष्ट करते हैं तो हम इसे प्रगति और विकास कहते हैं। इस तरह के दोहरे मापदंड प्रकृति, पर्यावरण व समूची पृथ्वी के अस्तित्व के लिए घातक है। इसलिए समझदारी इसी में है कि हम पृथ्वी का सम्मान करते हुए सह-अस्तित्व की भावना को मजबूती प्रदान करें तथा प्रकृति और पर्यावरण के साथ अत्याचार पर रोक लगाते हुए प्रकृति का श्रंगार करें।
पृथ्वी में सह- अस्तित्व की भावना व समझ के साथ रहना कितना जरुरी है, इसे बड़े ही अनूठे और प्रभावी तरीके से समझाने का प्रयास पद्मश्री बाबूलाल दाहिया जी ने किया है। वे बताते हैं "जीवहि जीवश्य जीवनम" यह मेरा कथन नहीं किसी उपनिषद का वाक्य है। उपनिषद के रचनाकार को ज्ञात था कि एक के जीवन से ही दूसरे का जीवन चलता है। एक वीडियो का उपयोग करते हुए आप बताते हैं कि वीडियो वाले इतने बड़े कीट के लिए एक दिन के भोजन में ही सैकड़ों कीट चाहिए होते हैं, जिसे आप देख ही रहे हैं। यह बड़ा कीट उसी प्रकार इन छोटे - छोटे कीटों को खा रहा है, जैसे हम मनुष्य अपने जीवन काल में कितनी लौकी, तरोई, गिलकी ,भिंडी एवं कुमढा के अर्ध विकसित फल चट कर जाते हैं। पर यह सब जानते हुए भी खांम खा अपनी फसलों में कीटनासी जहर उड़ेल रहे हैं। आप कल्पना कीजिए की इस बड़े कीट के भोजन के लिए प्रकृति को ता जिंदगी कितने छोटे जीव का प्रबन्ध करना पड़ रहा होगा ? जिससे हम अनभिज्ञ हैं।
जीवन चक्र : हरे पत्तों में मौजूद छोटे कीटों का भक्षण करता एक बड़ा कीट। |
श्री दाहिया बताते हैं कि एक वाकया मुझे अभी तक याद है। 22-- 23 सितम्बर के आस- पास के दिन थे तो मैंने देखा कि हमारे धान के खेत में हरे रंग और लम्बे मुँह का एक कीट लग गया था। हमारे खेत से होकर ही गाँव वालों के लिए मैदान की ओर जाने का रास्ता था, अस्तु देखने वाले लोगों ने कहा "दाहिया जी इसमें कीट नाशक डालिये नहीं तो आप की सारी धान यह गन्धी मक्खी खा लेगी?" मैं उनका मान रखने के लिए हां कह दिया और दूसरे दिन भोपाल चला गया। पर जब वहां से लौट कर आया तो देखा कि "सारे खेत में मकडियों ने जाल फैला रखा था, जिनमे उनके सैकड़ों बच्चे थे जो माँ के द्वारा फैलाए उस जाल में फसे कीटों को मजे से खा रहे थे। बाद में वह उतने ही बचे जितने प्रकृति को चाहिए थे।
दरअसल 20--25 सितम्बर के आस-पास जब वर्षा समाप्त हो जाती है तब मकडियों के प्रजनन का काल होता है, और एक- एक मकड़ी सैकड़ो बच्चे जनती है। इसलिए वह कीट प्रकृति की ओर से उसे उसी प्रकार उपहार हैं जैसे हमे लौकी, तरोई ,बरबटी, भिंडी आदि। और वह मकडियां अपना काम नहीं बल्कि प्रकृति के सौपे दायित्व पर काम कर रही होती हैं। क्योकि मकड़ियों को बरसात में बेतहाशा बढ़े मक्खी मच्छरों को भी तो इन्ही अपनी सन्तति द्वारा नियंत्रित करके हमारे जीवन को खुशहाल बनाता है ? पर अफशोस कि हम प्रकृति की इस भोजन श्रंखला को समझ ही नही पाते?
प्रकृति की भोजन श्रंखला को समझने के लिए दाहिया जी का यह वीडियो जरूर देखें -
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