यह कथन परसमनिया पठार की आदिबासी महिला बड़की बाई का है। चकरा न चलना ? एक प्राचीन बघेली मुहावरा था। जिसका आशय था कि "जिस प्रकार यहाँ तेज पानी नहीं गिर रहा, तो इस साल की अवर्षा के कारण यहां चकरे में धान दरने की नोबत नही आएगी ?" पर यह मुहावरा उस जमाने का है जब धान के हलर वगैरह दराई यंत्र प्रचलन में नही आये थे । और समूची धान एवं कोदो की दराई इसी चकरा य कोनइता नामक मिट्टी के संयंत्र से होती थी।
पर यह कहा तब जाता था जब जुलाई से मध्य अगस्त तक वर्षा नहीं होती थी या मध्य सितम्बर में सूखा पड़ जाता था। क्योंकि धान बुबाई के लिए पुष्प और पुनर्वस नृक्षत्र ही सही माने जाते थे । बाद में कितना ही पानी गिरे पर धान के लिए निरर्थक। अश्वलेखा के लिए तो एक हिदायत देती कहावत ही प्रसिद्ध थी कि--
सुरेखा न बोइये ।
कूट पीस खाइये।।
यानी अश्वलेखा में बोने से अच्छा है कि उस बीज को ही कूट पीस कर खा लिया जाय।।
इस समय उत्तरा नृक्षत्र लग चुका है जो 25 सितंबर तक रहेगा। उत्तरा की वर्षा गेहूँ, चने, अलसी के लिए अच्छी पैदावार का परिचायक है। उधर जो धान कृतिम सिंचाई करके भी बोई गई हैं, उनके लिए भी लाभदायक है । किन्तु जुलाई में वर्षा न होने से तो हमारे ऊँचेहरा जनपद के 60% धान के खेत खाली ही पड़े हैं। अस्तु अगस्त के महीने में बड़की बाई द्वारा कहा गया यह कथन आज भी बरकरार है कि--
" आसउ दइउ के धइना म चकरा न चली?"
दरअसल परिस्थितियां बदल जाने से तमाम कृषि आश्रित समाज के उपकरण विलुप्तता के कगार पर हैं। किन्तु जन मानस में जो मुहावरे लोकोक्तियाँ अंकित हो जाती हैं वे परम्परा में लम्बे समय तक चलती रहती हैं।
@बाबूलाल दाहिया
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