जी हां यह कुरई पैला हैं, प्राचीन समय के अनाज मापक। अब तो दशमिक प्रणाली के मापक चल रहे हैं। पर इनका अस्तित्व तब से है जब अग्रेजों द्वारा चलाए गए मन सेर छटाक तक चलन में नही थे।
प्राचीन समय में खेती के उपज का छठवां भाग किसानों से तत्कालीन राजा इलाकेदार या पवाईदार लेते थे। बाद में यह लगान एक तिहाई हो गई थी। इसके लिए हर गाँव के मुखिया को राजा इलाकेदारों की ओर से 4 सेर गेंहू के नाप की एक कुरई दी जाती थी और उसी के जरिए गाँव के समस्त लोग अपना लेन-देन करते थे। अगर कोई किसान चाहे तो बढ़ई से अपनी कुरई खुद बनवा सकता था, पर आयतन का आधार वही कुरई होती थी। उसे लोहट की कुरई कहा जाता था।
शुरू-शुरू में यह कुरई लकड़ी की बनती थी पर 60 के दशक तक वह लौह की चलन में आ चुकी थी। लेकिन बड़े-बड़े किसान मजदूरों को कम मजदूरी देने के लिए लोहट की कुरई के बजाय एक घटिया कुरई भी रखते थे, जो साढ़े तीन सेर की होती थी। उसे किसान तो बनिहाई कुरई कहते थे। यानी मजदूरों को बनी मजदूरी देनेवाली कुरई, पर मजदूर उसे पोकटी कुरई कहा करते थे। उसका उल्लेख मेरी उस समय की लिखी एक कविता में भी था, जिसमे एक मजदूर अपने किसान से कहता है कि -
हक्क रकाना मांगी तौ,पोकटी कुरई अनमसत्या।
अन्तय सस्त महग पउहउत्या,हमही एतू कसत्या।।
यतनी होय मंजूरी जउने, खाय भरे का पूजय।
टोरबन कय दीदी अगाध कहि, जिउ हमार ना भूजय।।
उसी तरह कुरई का चौथाई माप का पैला कहलाता था जिसका आयतन एक सेर होता था और सोलमा भाग कुरुआ होता था। पर अब यह सभी पुरावशेष बन चुके हैं।
@बाबूलाल दाहिया
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