मचिया जो गाँव में घरों की शान हुआ करती थीं। |
कुछ दशक पूर्व तक चार पायों वाली जो मचिया गाँव में घरों की शान हुआ करती थीं, वे अब नजर नहीं आतीं। इन देशी मचियों की जगह प्लास्टिक की कुर्सियों ने ले लिया है। फलस्वरूप मचिया विलुप्तप्राय होकर पुरातात्विक महत्व की चीज बनकर रह गई हैं।
चार पुरुष जे मुण्डय मुण्डा।
उनके कान म दण्डय डण्डा।।
यह बघेल खण्ड के किसी अपढ अनाम ब्यक्ति की रची हुई पहेली है, जो इस मचिया के चार पायों पर कितनी सटीक बैठती है ? पहेली के इन चारों मुंडे पुरुषों को बघेली में मचियां के पेरुआ कहा जाता है।
प्राचीन समय मे जब प्लास्टिक की कुर्सियों का प्रचलन नहीं था, तब मचियां हर घर की शान हुआ करती थीं। कहीं-कहीं तो वह सम्पन्नता की प्रतीक ही दिखाई पड़ती, जब बैठक खाने में कई-कई मचियां करीने से रखी रहतीं और दरबारी आते तो उन्ही में बैठते। यदि अधिक शौकीन परिवार होता तब सूमा के बजाय मचियां अम्बारी या सन की सुतली की बुनी हुआ करतीं।
यह बहुउद्देसीय मचियां धान दराई के समय महिलाओं के बैठने के लिए भी उपयोगी होतीं। यहां तक की छोटे किसानों के घर में भी कोई जाता, तो माता-पिता बच्चों को आवाज देते कि -
" फलनमा मचियां उचाय लाव ? तोर फलाने काका या बब्बा आये हैं?"
बघेली के कई लोकगीतों और लोक कथाओं में मचियां का उल्लेख है। एक लोक गीत में तो एक पोता अपने मचियां मे बैठे हुए दादा जी से अर्ज ही कर रहा है कि "मेरे सिर की झालर बहुत बढ़ गईं हैं तो मेरा मुंडन करवा दो ?" यथा--
मचियन बइठे फलाने रामा नतिया अरज करय हो,
पर कुछ लोक कथाओं में मचिया में बैठी हुई रानियों को अपनी दासियों को भी बुलाते हुए दर्शाया गया है। क्योंकि घर के बैठने के लिए मचियां से उत्तम कोई वस्तु नही थी। जिसे भीतर, बाहर, आँगन,फरिक कोनइतहा घर हर जगह बगैर किसी अवरोध आसानी से ले जाया जा सकता था। किन्तु अब वह मचियां विलुप्तता का दंश झेलती पुरावशेष बनने की श्रेणी में है।
0-- बाबूलाल दाहिया
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