Saturday, September 25, 2021

मनुष्य और पानी : ढेकली से सबमर्सिबल तक


 ।। बाबूलाल दाहिया ।।

पानी के बिना किसी जीवधारी की कल्पना ही नही की जा सकती। यह अलग बात है कि उसके ग्रहण करने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे साँप, छिपकली आदि कुछ जीवों को वह भोजन के साथ ही मिल जाता है। पर मनुष्य और पशुओं को भोजन अलग और पानी अलग ग्रहण करना पड़ता है।        

 मनुष्य का पानी से काफी प्राचीनतम रिस्ता रहा है। शायद तभी से जब वह नर बानर के रूप में आदिम अवस्था में था और पेड़ो तथा गुफाओं में रहता रहा होगा। क्यों कि हर जीव को अपने शरीर के तापमान को 37 डिग्री सेल्सियस बनाये रखने के लिए पानी की जरूरत प्रकृति प्रदत्त अनिवार्यता है। वर्ना अधिक ताप को शरीर के बर्दास्त न करने से मृत्यु अवश्यम्भावी है।  इसलिए नर बानरों का समूह भी पानी के लिए मौका देख अपने परम्परागत पत्थर, लकड़ी के आयुध हाथ में लेकर बार- बार नदी झील झरनों में जाता रहा होगा।

किन्तु प्रकृति के "जीवहि जीवश्य भोजनम " से भला वह कैसे बच सकता था? इसलिए हिंसक पशु शेर, चीते, भेड़िये भी इसी ताक में रहते रहे होंगे कि - "कब यह पेड़ से उतरे और कब हम इसके सुस्वाद नमकीन कोमल मांस का निबाला बनाले।"

फिर मनुष्य के दो अदद फुर्सत के हाथ और एक अदद बिलक्षण बुद्धि ने जोर मारा होगा। उसे जंगल में कहीं लौकी के बड़े - बड़े फल दिखे होंगे। उसने उन सूखे फलों में छेद कर रस्सी से उसे बांध अपने पानी लाने का पुख्ता साधन बनाया होगा। ताकि वह बार - बार पेड़ से उतर कर पानी पीने के बजाय कुछ समय के लिए उसे संचित कर सके।

किन्तु इसमें एक समस्या यह थी कि पानी शीघ्र ही गर्म हो जाता रहा होगा। इधर वह तब तक जानवरों से अपनी शुरक्षा के लिए अब गोफना, गुलेल से होते हुए मोगदर और हिरन के सींग में लाठी डाल भाले तक की यात्रा पूरी करली थी। इसलिए गुफा और पेड़ के बजाय अब नदियों के किनारे झोपडी बनाकर रहने लगा था। जिससे जानवर भी उस दो पाये से डरने लगे थे।

कालांतर में जंगल में लगी आग से दीमक की बनाई बॉबी को पककर मजबूत शक्ल में ढलते  देख उसकी अक्ल ने जोर मारा होगा और उसने पानी रखने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाये होंगे। इसमे तुम्बे के बजाय उसे अधिक ठंडा पानी मिलने लगा होगा।

यह रही पानी की मनुष्य की आदिम यात्रा। जिसके अवशेष आजादी के पहले तक कई आदिवासी समुदायों के घरो में तुम्बे, तुम्बी के रूप में मौजूद थे। पर जब लौह आयस्क की खोज के बाद मनुष्य ने मैदान में कुँआ खोद वहां बस्ती बसाया तो जंगल से तरकारियाँ लाने के बजाय सब्जी उगाने की ओर भी मनुष्य का ध्यान गया ।

उसने दो भुजाओं बाले मोटे लट्ठे को कुंए के पास गाड़ एक हाँथ डेढ़ हाँथ की लकड़ी से कुंए की गहराई के बराबर की लम्बी लकड़ी को जोडा और ढेकली नामक एक यंत्र बना डाला। फिर उसमे रस्सी बांध मरके से पानी खीच सिचाई करने लगा। पर उसके फिदरती दिमाग को फिर भी चैन कहा? उसने तरसा, रहट आदि उपकरण बना अब सब्जियों के साथ- साथ अनाजों की भी सिचाई करनी शुरू कर दी।

तुम्बी से लेकर रहट तक की पानी की यह यात्रा तो ठीक ही थी। क्योंकि इसमें प्रकृति के ऊपर कोई खास विपरीत असर नहीं पड़ता था। किन्तु अब यह इक्कीसवी सदी की जो पम्प और सबमर्सिवल पम्प की यात्रा हुई, वह कुछ वर्षों में ही सत्यानासी सिद्ध होने लगी। क्योंकि इससे अब 1000 फीट तक का पानी खीच धरती को निपान किया जाने लगा है।

अब तो यह मनुष्य की करतूत हमे उन पंचतंत्र के ऋषि की याद दिला रही है जिनके बारे मे कहा गया है कि -- "एक ऋषि को जन्तुओं को जीवित कर लेने का मंत्र ज्ञात था। उन्हें शरारत सूझी और साथियों के रोकने के बाद भी उनने एक बाघ के अस्थि पंजर में हाड मांस चमड़ा आदि लगाने के बाद  प्राण भी डाल दिया। फिर क्या था ? वह बाघ उठा और ऋषि को तो खाया ही उनके कुछ मूर्ख  साथियों को भी खा गया, जो पेड़ में नही चढ़े थे।"

आज वह बिकास रूपी बाघ वैश्विक तपन और जलवायु परिवर्तन के रूप में मुँह बाए खड़ा है। किन्तु पता नही मनुष्य रूपी इस ऋषि को कब तक में अपनी इस विनाश का रूप धारण कर रही तथा कथित विकास रूपी मूर्खता का अहसास होगा।

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