Thursday, April 28, 2022

यादें : जब बैलों को घण्टी और गलगला बांधकर सजाया जाता था !


कुछ दशक पहले गाँवों में बैलों की अपनी एक अलग ही शान हुआ करती थी। गाँव के लोग उन्हें अच्छा दाना चारा खिलाकर हृष्ट पुष्ट तो रखते ही थे उनको सजाते और संवारते भी थे ताकि वे आकर्षक दिखें। किसके यहाँ कितने हल के बैल हैं इसी से उसकी हैसियत का अंदाजा लगाया जाता था। मेलों ठेलों व बारात में बैलगाड़ी से ही लोग जाते थे, तब बारातियों की तरह बैल भी आकर्षक ढंग से सजे धजे रहते थे। बैलगाड़ी में जुते बैलों के बीच दौड़ का मुकाबला बेहद रोमांचक होता था जिसकी महीनों पूर्व से लोग तैयारी किया करते थे।                       

बैलों और मवेशियों के गले में घंटी बांधने की परंपरा के पीछे की असल वजह क्या है ? इस बावत जब बड़े बुजुर्गों से चर्चा की गई तो उन्होंने बताया कि मवेशी देखने में आकर्षक लगे यह वजह तो थी ही लेकिन इसके अलावा घंटी बांधने की सबसे बड़ी वजह यह भी थी कि घंटी बजने से मवेशी पालक को यह पता चलता रहता था कि उसके मवेशी सुरक्षित हैं। खेतों में काम करते वक्त घंटी के बजने से उन्हें एक तरह से आनंद मिलता था। 

विंध्य क्षेत्र के जाने माने किसान पद्मश्री बाबूलाल दाहिया खेती किसानी और भूली बिसरी पुरानी परम्पराओं के न सिर्फ अच्छे जानकार हैं अपितु इन परम्पराओं को बचाने में भी रूचि लेते हैं। आपने खेती किसानी में उपयोग होने वाले पुराने औजारों को जहाँ सहेजने का काम किया है वहीं उनकी उस समय क्या उपयोगिता रही है यह भी नई पीढ़ी को बताते हैं। बैलों के गले में बांधे जाने वाले गलगला के बारे में दाहिया जी ने रोचक जानकारी साझा की है जो यथावत दी जा रही है - 


गलगला ( फोटो - बाबूलाल दाहिया )

जी हां यह गलगला है जिसे नई पीढ़ी के बहुत से लोग न जानते होंगे कि यह क्या है  और इसका क्या उपयोग था ?  क्योंकि अब शान शौकत के  रंग ढंग भी बदल गए हैं। किन्तु 50--60 का वह दशक था, जब न तो आज जैसी सड़कें थीं न सड़क में चलने वाले वाहन ही। यहां तक कि साइकल भी गांव में किन्ही एक या दो परिवार के विलासता का वाहन हुआ करती थी। अस्तु तब खेती किसानी का सबसे सुलभ और सरल वाहन था बैलगाड़ी।

बैलगाड़ी खेत, खलिहान का तो वाहन था ही पर आवश्यकतानुसार नात रिश्तेदारी में भी इसे ले जाया जाता था। न डीजल भराने की जरूरत न पैट्रोल की किल्लत। बस एक बोरा भूसा रख लिए और सारे परिवार के सदस्यों को बिठाकर चल पड़े। क्योकि सड़कें भले न रही हों पर बैलगाड़ी के ऊबड़खाबड़ रास्ते तब भी हर गाँव में होते थे।

लेकिन जिस  प्रकार आज लोग अपनी मोटर गाड़ी आदि सजाकर रखते हैं उस समय बैलगाड़ी के बैलों को सजाया जाता था। उनके मुँह में जहां मोहरे और सींग में सिगोटी बांधी जाती, वहीं गले में घण्टी और गलगला भी। पर गलगला और घण्टी को चर्म शिल्पी चर्म पट्टिका में गूथ कर खूब सूरत बना देते थे। हर एक बैल की गले की पट्टिका के मध्य में एक घण्टी होती और अगल बगल 2- 2 गलगले गुथे रहते। इस तरह जब बैल गाड़ी लेकर चलते तो इन गलगलों और घण्टी से कर्ण प्रिय आवाज भी निकलती रहती। 

गलगला बनाने की शैली घण्टी से अलग घुघरू की तरह हुआ करती थी। यही कारण था कि घुघरू का स्थूल स्वरूप होने के कारण उसके आवाज में अलग तरह की मधुरता हुआ करती थी। पर अब तो यह अजूबा वस्तुएं किसी संग्रहालय में ही मिलेंगी। जब बैलों को घण्टी और गलगला बांधकर सजाया जाता था। 

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