- आदिवासी समुदाय में महुआ सीजन किसी पर्व की तरह होता है। महुआ जब टपकना शुरू होता है, तो रोजी रोजगार के लिए बाहर गए लोग भी वापस घर लौट आते हैं। इस तरह से यह सीजन बिछड़े परिजनों के मेल मिलाप का भी कारण बनता है। आदिवासियों का पूरा कुनबा मिलकर महुआ फूल का संग्रहण करता है।
विक्रमपुर गांव की तुलसा बाई सुबह 4 बजे घर से जंगल निकल आती है महुआ बिनने। |
।। अरुण सिंह ।।
पन्ना (मध्यप्रदेश)। सूरज उगने से पहले ही तड़के 5 बजे अपने पूरे परिवार के साथ राधारानी राजगोंड जंगल से लगे अपने खेत में पहुंच जाती हैं। इनके खेत में महुआ के छोटे बड़े लगभग 50 पेड़ हैं। इन पेड़ों के नीचे महुआ फूल बिछे पड़े हैं, जिनकी खुशबू से पूरा जंगल महक रहा है। 45 वर्षीय राधारानी कहती हैं कि "महुआ टपकने का यह सीजन हमारे लिए त्यौहार की तरह होता है, इसी से हम पलते हैं। बड़े गर्व के साथ मुस्कुराते हुए राधारानी आगे बताती हैं कि इते कामै काम है। महुआ से रीतबी तो चरवा (चिरौंजी) टूटन लगहे, फिर महुआ गोली आ जैहे, काम की कमी नहीं है"। महुआ सीजन में तो आदिवासियों के घरों में ताला लगा रहता है। क्योंकि सुबह से ही परिवार के सभी लोग टोकरी लेकर महुआ बीनने खेत और जंगलों में निकल जाते हैं।
जंगल से घिरा आदिवासी बहुल विक्रमपुर गांव जिला मुख्यालय पन्ना से 12 किलोमीटर दूर स्थित है। इस गांव में 46 परिवार हैं जिनमें अधिकांश आदिवासी हैं। राधारानी इसी गांव की निवासी है। पेड़ के नीचे बने मचान में बैठे राधारानी के पति शंकर सिंह राजगोंड ने बताया कि रात में बियारी करके इतै खेत में आ जात और पूरी रात इसी मडैया (मचान) में रहत। रात में यदि न तकिए तो नीलगाय और जंगली सुअर महुआ खा जात हैं। शंकर सिंह आगे बताते हैं कि भोनसारे (सुबह) जैसे ही दिखान लगो, पूरा परिवार महुआ बिनन लगत है। बिटिया, बहू, लड़के सभी महुआ बिनते हैं, फिर भी पूरा महुआ नहीं बिन पाते। पेड़ के नीचे महुआ सूख जाता है जिसे बटोर लेते हैं।
पेड़ के नीचे बने मचान में बैठे शंकर सिंह राजगोंड नीचे बैठी उनकी पत्नी राधारानी, पास में फैला महुआ। |
शंकर सिंह के खेत में महुआ, अचार, तेंदू और आंवले के पेड़ हैं, जो प्राकृतिक रूप से उगे हैं। खेत में यदा-कदा ही सरसों और चना बोते हैं, लेकिन इस साल बोनी नहीं की थी। वे बताते हैं कि खेत भले ही नहीं बोओ रहो, फिर भी जितने की खेत में फसल होती है उतना अकेले महुआ दे देता है। यह बिना लागत की फसल है। शंकर सिंह का कहना है कि 5 से 8 कुंटल सूखा महुआ हर साल हो जाता है, जिसे 40 से 50 रुपये प्रति किलो की दर से व्यापारी खरीद लेते हैं। महुआ फूल के अलावा महुआ गुली (फ़ल) भी 10-15 हजार रुपये का हो जाता है। अचार, तेंदू और आंवले से भी आय होती है। हमारी यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक बिना लागत वाली है।
विक्रमपुर गांव के ही प्रतिपाल सिंह 40 वर्ष बताते हैं कि गांव में कई ऐसे लोग हैं जिनके खेतों में महुआ के पेड़ हैं। जिनके खेत में पेड़ नहीं हैं वे महुआ बिनने के लिए जंगल जाते हैं। वे बताते हैं कि महुआ का पेड़ आदिवासियों के जीवन का अहम हिस्सा है, इसके तने की छाल से लेकर फूल और फल सभी उपयोगी हैं। प्रतिपाल सिंह बताते हैं कि जिसके खेत में महुआ के 10 बड़े पेड़ हों, उसे गांव में बड़ा आदमी (संपन्न व्यक्ति) माना जाता है। महुआ बीज का तेल ठंड में नारियल के तेल की तरह जम जाता है। आदिवासी इसे खाने के काम में लाते हैं। यह तेल त्वचा के लिए भी उत्तम माना जाता है। समाज सेवी संस्था समर्थन के रीजनल कोऑर्डिनेटर ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि महुआ सिर्फ जंगली फूल ही नहीं, यह आदिवासी अंचल की अर्थव्यवस्था चलाता है।
प्रतिपाल सिंह 40 वर्ष बताते हैं कि गांव में कई ऐसे लोग हैं जिनके खेतों में महुआ के पेड़ हैं। |
ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि अकेले विक्रमपुर गांव में ही लगभग 150 कुंटल महुआ संग्रहित होता है। उत्तर वन मंडल पन्ना के अंतर्गत आने वाले गांव इमलौनिया पनारी, रहुनिया, खजरी कुडार, हर्षा, बगौंहा, मुटवा व जनवार सहित जंगल में बड़ी संख्या में महुआ के वृक्ष हैं, जहां आदिवासी व अन्य समुदाय के लोग महुआ बिनते हैं। वन मंडलाधिकारी उत्तर पन्ना गौरव शर्मा ने बताया कि उत्तर वन मंडल में 60 हजार से भी अधिक महुआ वृक्ष हैं। एक विकसित वृक्ष से 25 किलोग्राम से लेकर 50 किलोग्राम तक सूखा महुआ निकलता है।
अपने 9 वर्षीय पुत्र बसंत के साथ महुआ बिन रही दीपरानी 36 वर्ष निवासी विक्रमपुर बताती हैं कि इस साल अच्छा महुआ टपक रहा है। हमारे 14 एकड़ के खेत में महुआ के 27 पेड़ हैं, जिनसे कम से कम 6-7 कुंटल सूखा महुआ निकल आएगा। महुआ पेड़ की खूबी गिनाते हुए दीपरानी बताती हैं कि शहर के लोग जाड़े में महंगी क्रीम लगाते हैं और हम लोग डोरी का तेल पैरों की बेवांई से लेकर चेहरे में भी मिलते हैं। महुआ से हमें पैसा तो मिलता ही है, यह हमारी सेहत और शरीर का भी ख्याल रखता है।
75 फ़ीसदी से भी अधिक आदिवासी करते हैं महुआ का संग्रह
मध्य प्रदेश सहित छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड और आंध्रप्रदेश में महुआ के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं। इन प्रदेशों का महुआ महत्वपूर्ण लघु वनोपज है। आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया ( ट्राइफेड ) के अनुसार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व आंध्रप्रदेश के 75 फ़ीसदी से ज़्यादा आदिवासी परिवार महुआ फूल संग्रहण का काम करते हैं। मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में महुआ का चयन एक जिला एक उत्पाद के तहत किया गया है। इस जिले में लगभग 17000 टन महुए का उत्पादन होता है। यहां संग्रहीत होने वाले महुआ की गुणवत्ता को कायम रखने के लिए आजीविका मिशन के द्वारा समूह सदस्यों को महुआ संग्रह करने और महुआ की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु प्रशिक्षित भी किया गया है। महुआ संग्रह करने वाले हितग्राहियों को महुआ जाली वितरित की गई है। जाली का उपयोग करने से महुआ जमीन में नीचे नहीं गिर पाता, जिससे उच्च गुणवत्ता का महुआ प्राप्त होता है।
कल्दा पठार में महुआ उत्सव की धूम
कल्दा पठार में आदिवासी समुदाय के लिए महुआ रोजी-रोटी का जरिया |
मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में दक्षिण वन मंडल अंतर्गत आने वाला आदिवासी बहुल इलाका कल्दा पठार का जंगल इन दिनों महुआ फूलों की गंध से महक रहा है। यहां के जंगलों में महुआ वृक्षों की भरमार है। कल्दा पठार में आदिवासी समुदाय के लिए महुआ रोजी-रोटी का जरिया है। इस सीजन में आदिवासियों का पूरा कुनबा महुआ फूल चुनने में लगा रहता है। लघु वनोपज सहकारी संघ मर्यादित दक्षिण वन मंडल पन्ना से प्राप्त जानकारी के अनुसार कल्दा पठार के श्यामगिरी सहित रामपुर, मैनहा, पिपरिया, जैतूपुरा, टोकुलपोंडी, भोपार, कुसमी, झिरिया व डोंडी आदि में तकरीबन 3 हजार कुंटल महुआ फूल का संग्रहण हो जाता है।
कल्दा पठार के कुसुआ आदिवासी बताते हैं कि पेड़ों से इस कदर महुआ फूल टपकते हैं कि दिन भर बिनने के बाद भी पूरे फूल हम नहीं चुन पाते। इस सीजन की सबसे बड़ी खूबी और विशेषता यह भी है कि महुआ फूल आने पर बिछड़े परिजनों का भी मिलन हो जाता है। पठार के जो लोग रोजी-रोटी की तलाश व अन्य कारणों से बाहर चले जाते हैं, वे भी महुआ सीजन में वापस घर लौट आते हैं। पठार के आदिवासी बताते हैं कि अमदरा, मैहर, पवई व सलेहा के व्यापारी यहां आकर आदिवासियों से महुआ खरीदकर ले जाते हैं। लघु वनोपज सहकारी संघ के मुताबिक मध्यप्रदेश में 75 हजार कुंटल से भी अधिक महुआ फूल की खरीदी होती है।
महुआ फूल का समर्थन मूल्य 35 रुपये किलो
मध्यप्रदेश के वन मंत्री डॉ कुंवर विजय शाह ने बताया कि प्रदेश सरकार ने वनवासियों के हित में 32 लघु वनोपज प्रजातियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित किया है। महुआ फूल का समर्थन मूल्य 35 रुपये प्रति किलो है। वनोपज की खरीदी के लिए 179 खरीदी केंद्र और लघु वनोपज के 47 गोदामों का निर्माण कराया गया है। प्रधानमंत्री वन धन विकास योजना के तहत प्रदेश के 19 जिला यूनियनों में 107 वन धन केंद्र की स्थापना की गई है।
प्रतिपाल सिंह राजगोंड बताते हैं कि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य 35 रुपये काफी कम हैं। इससे ज्यादा कीमत पर व्यापारी गांव में आकर महुआ फूल खरीद कर ले जाते हैं। प्रतिपाल का कहना है कि 40 से 45 रुपये प्रति किलो की दर से महुआ बाजार में अभी बिक रहा है। माह-2 माह बाद यही महुआ 50 से 60 रुपये प्रति किलो की दर से बिकेगा। समर्थन संस्था के ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं कि समर्थन मूल्य कम होने के कारण कुल उत्पादन का 15-20 फ़ीसदी महुआ की भी सरकारी खरीद नहीं होती। उत्पादित महुआ समर्थन मूल्य से अधिक दर पर व्यापारी खरीद रहे हैं। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश के शहडोल, उमरिया, मंडला, बालाघाट, डिंडोरी, पन्ना व छतरपुर जिलों में महुआ का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता है।
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