- लौह उपकरण बेचने वाले लोहगड़िया समुदाय के लोग जो अपना रिश्ता महाराणा प्रताप के सिसौदिया वंश से जोड़ते हैं। इस खानाबदोश समुदाय के लोग लोहे से निर्मित होने वाले औजारों को बनाने में निपुड होते हैं। लेकिन इस तकनीकी युग में इनके बनाये औजारों की मांग न के बराबर रह गई है जिससे यह खानाबदोश समुदाय अब संकट में है।
खानाबदोश लोहगड़िया समुदाय के लोग इसी तरह बैलगाड़ी से एक जगह से दूसरी जगह की यात्रा करते हैं। |
।। बाबूलाल दाहिया ।।
मित्रो ! यहां लौह उपकरण बेचने वाले एक लोहगड़िया के दो चित्र हैं। पहला तब का है जब वह बैलगाड़ी में अपने समूचे परिवार और गृहस्थी को लेकर आता था । लेकिन दूसरा अब का है जब वह खेती के तमाम उपकरण बस में रख कर लाया है और पुराने स्थान में ही दुकान लगा कर बेचता है। पता नहीं समय क्यो इतनी तेजी से बदलता है कि पिछला सब कुछ तहस नहस करता आगे बढ़ जाता है ? लोहगड़िया नामक इस खानाबदोश समुदाय को हम बहुत पहले से देखते चले आ रहे हैं। यह राजस्थानी लोहगड़िया अपना रिश्ता महाराणा प्रताप के सिसौदिया वंश से जोड़ते हैं।
कहते हैं कि जब महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि "जब तक चित्तौड़ दोबारा न जीत लेंगे तब तक खाट में नही पड़ेगे ? सोने चाँदी के बर्तन में नहीं खायेंगे ? महल के बजाय तम्बू में ही रहेंगे।" तो उस प्रतिज्ञा में यह समुदाय भी शमिल था। क्योकि शस्त्र आपूर्ति करने के कारण यह समुदाय उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ा था।
सम्भवतः 1953-54 में शुरू- शुरू में जब यह लोग यहां अपनी बैल गाड़ी में पहली बार आए तो इनके सिर में कान के ऊपर अगल बगल दो और चोटी हुआ करती थी। क्योकि इनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि "जब तक अपना देश चित्तौड़ आजाद न करा लेगे तब तक इन चोटियों को नही मुड़वायेगे ?" यही कारण था कि तब इन्हें लोग (तिनचुटइहा) यानी कि तीन चोटी वाला कहते थे। पर बाद में इन्हें अहसास कराया गया कि "अब तुम्हारा चित्तौड़गढ़ भर नही सारा देश आजाद हो गया है।" तो फिर बाद में उनने अपनी दो चोटियां मुड़वा दी।
किमदन्तिया चाहे जो रही हों ? पर इतना तो सच है कि राजपूतों के तलवार, बरछी, भाले आदि की आपूर्ति इन्ही के बलिष्ठ भुजाओं पर टिकी थी। और उनकी विजय श्री के यह समान भागीदार भी थे। इस कार्य मे इनके छोटे- छोटे बच्चे, किशोर, किशोरियां और महिलाएं सभी की बराबर की भागीदारी होती थी। इनकी ताकत और तकनीक से लोहा पानी -पानी होकर वह भाला, बरछी, तलवार, कटार जो आकार देना चाहते उसमें ही तब्दील हो जाता था। यह लोग कई पीढ़ियों बाद आज भी हर लौह की मुकम्मल जानकारी रखते हैं कि "कौन कच्चा, कौन पक्का और कौन गोबरा लौह है ?"
किन्तु जब अग्रेजों का राज्य आया और राजाओं के आपसी युद्ध खत्म हो गए, साथ ही भाला, बरछी, तलवारों का स्थान बंदूकों ने ले लिया तो समय की गति पहचान इनके कुछ कबीले वर्तमान मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिलों में आ गए और खेती के उपकरण बनाने लगे। लेकिन कल्चर आज भी पूर्णतः राजस्थानी ही है ?
इनका अब स्थायी निवास सागर जिले का एक भूभाग है, जहां यह चार चौमासा बिताते हैं और बाद में अपनी बैल गाड़ी में जरूरी ग्रहस्ती का समान लेकर आठ माह की यात्रा में निकल पड़ते थे। क्योकि यह ऐसा समुदाय है जो बैल गाड़ी में ही पैदा होता, उसी में रहते पलता बढ़ता उसकी सगाई व विवाह होता और फिर उसी में शरीर भी त्याग देता। इनकी एक और विशेषता थी कि यह लौह उपकरण के साथ पशुओं का भी ब्यापार करते थे।
लोगों के पास कितने ही गरियार हल में न चलने वाले बैल होते तो उन्हें कम मूल्य में खरीद लेते और बाद में बैल गाड़ी में चला अच्छे दामों में बेच लेते। पर एक ओर तो ट्रेक्टर, हारबेस्टर आदि ने इनके हथियारों को सीमित कर दिया तो दूसरी ओर अब पशुओं का ब्यापार भी चौपट हो गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 15-20 साल पहले जो लोहगढ़िया कई परिवार समूह में हमारे गाँव के मैदान में हप्तों का कैम्प लगाते और लौह उपकरण बनवाने वालों का इनके इर्दगिर्द ताता लगा रहता लेकिन अब बस से मात्र एक परिवार आया है, जिसके उपकरणों की दूकान तो लगी है पर सामान की कोई पूछ परख नहीं दिखती। आगे इस समुदाय की जिंदगी कैसे चलेगी? यह सोचनीय है।
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