Wednesday, September 6, 2023

औषधीय व पौष्टिक गुणों से भरपूर होती है देशी तरकारी कचरिया

  • खेतों और मेड़ों में अपने आप उग जाती है इसकी बेल 
  • जुकाम, पित्‍त, कफ, कब्‍ज सहित कई रोगों की है दवा

कचरी या कचरिया एक सुपरिचित तरकारी है जिसे एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर माना जाता है।

।। अरुण सिंह।। 

कचरिया को अगर भारत की देसी सब्जी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आमतौर पर यह खेतों और मेड़ों में अपने आप उग जाती है और इसकी बेल जहां-तहां फैल जाती है। लेकिन अब इसके पौष्टिक गुणों को देखते हुए देश में इसकी खेती भी की जा रही है और यह आसानी से बाजारों में भी नजर आती है। इसका सेवन शरीर को अपच और कब्ज से दूर रखता है। कचरी को एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों से भी भरपूर माना जाता है। 

कचरी या कचरिया एक सुपरिचित तरकारी है। मरु प्रदेश में बहुत ज्यादा पैदा होने के कारण इसका एक नाम मरुजा भी है। कचरी का पौधा कुकुरबिटेसी कुल से आता है। आयुर्वेद में कचरी को कर्कटी वर्ग की वनौषधि माना है। कचरी की बेल खीरे जैसी होती है, लेकिन लंबाई में थोड़ी छोटी होती है। कचरी के पत्ते ककड़ी के पत्तों जैसे ही होते हैं। इसकी बेल पर छोटे-छोटे पीले रंग के सुंदर फूल लगते हैं। कचरी को ग्वाले बहुत रुचि से खाते हैं, इसलिए कचरी का एक नाम गोपाल कर्कटी भी पड़ गया है।

जैविक खेती को बढ़ावा देने वाले बघेलखण्ड के कृषक पद्मश्री बाबूलाल दाहिया इस देशी तरकारी के बारे में बताते हैं कि इसे बघेलखण्ड में पेहुटी और कुछ अन्य स्थानों में कचरिया के नाम से जानते हैं। इनको अगर पकने के पहले तोड़ एवं काट कर धूप में सुखा लिया जाय और नमक मसाले तेल के साथ लेट लिया जाय तो इसका बेहतरीन अचार पूरे साल भर खाया जा सकता है। इसे कहीं उगाने की जरूरत नहीं होती ? क्योकि इसने अपना बीज सम्बाहक सदियों से भेड़ ,बकरी, हिरण, चीतल आदि को बना रक्खा है। यू तो इसका कच्चा फल कडबा होता है, किन्तु पकने के बाद फूट, ककड़ी जैसा मीठा। अस्तु भेड़ बकरी इसका पका और अधपका फल चबाकर निगल जाती हैं तथा अपनी मेंगनी के साथ बीज का दूर-दूर तक फैलाव करती हैं।

 श्री दाहिया बताते हैं कि प्राचीन समय में शिकारी लोग मछली पकड़ने वाली वंशी में इसे फसाकर हिरण का शिकार भी करते थे। दरअसल यह हिरण का बहुत प्रिय भोजन है अस्तु शिकारी वंशी में 2 फीट की डोरी बांध उसके दूसरे छोर में बच्चों के गिल्ली डंडा खेलने वाली गिल्ली बांध देते थे और वंशी के नोक में इस पेहुटी के फल को फसा हिरण के रात्रि रखड़ने वाले स्थान में रख देते थे। जब वह फल खाते और वंशी की नोक जीभ में फस जाती तो उसे अलग करने के लिए डोरी में खुर मारते तो उस गिल्ली में खुर भी फस जाता। उसके पश्चात बेचारा हिरण चुपचाप खड़ा रह जाता, जिसे शिकारी पकड़ ले जाते। इस फल का  माड़वारी समुदाय पूजा करता है और इसे बड़े चाव से खाता है।

कचरी को (वानस्पतिक नाम: Cucumis pubescens) संस्कृत में चित्रकला, मृगाक्षी, चिभट मराठी में टकमके रौंदनी, चिभूड़ बांग्ला में वनगोमुक, कुंदुरुकी, फुटी पंजाबी में चिंभड़, मारवाड़ी में काचरी और सेंध, हिंदी में आंचलिकता के आधार पर काचर, सैंध, गुराड़ी, पेंहटा और कचरिया कहा जाता है। कचरी के औषधीय गुणों का वर्णन आयुर्वेदिक ग्रंथों में उपलब्ध है। कचरी के कच्चे हरे सफेद चितकबरे फल बहुत कड़वे होते हैं। पकने पर यही फल पीले पड़ जाते हैं। पकी और अधपकी कचरी से भीनी-भीनी सुगंध आती है। प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रंथ राज निघंटु में कचरी को तिक्तरस वाली, विपाक में अम्ल वातनाशक, पित्तकारक तथा उत्तम रुचिकारक बताया गया है। कचरी को आयुर्वेद में 'मृगाक्षी' कहा जाता है और यह बिगड़े हुए जुकाम, पित्‍त, कफ, कब्‍ज, परमेह सहित कई रोगों में बेहतरीन दवा मानी गई है।

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