।। बाबूलाल दाहिया ।।
मित्रों ! किसी भी वस्तु का दिवस मनाने का सीधा सा अर्थ होता है कि उसका वजूद संकटापन्न स्थिति में है। और यही बात संग्रहालय दिवस पर भी लागू होती है। संग्रहालय का अर्थ है ( संग्रह की हुई वस्तुओं का आलय) यानी कि भवन। जब हम भीम बैठका आदि आदिम युग के मनुष्य द्वारा निर्मित शैल चित्रों य अवशेषों को देखते हैं तो उन शैल चित्रों में मनुष्य के संग्रह की पृबृत्ति नही दिखती। वह य तो फल फूल खाता य फिर अगर किसी बड़े जानवरों का शिकार कर लेता तो उसकी तीन दिन की खाद्य समस्या हल हो जाती। फिर उसके तीन दिन नृत्य आदि खुशियां मनाने में बीतते।
परन्तु संचय की पृबृत्ति खेती की तकनीक विकसित होने के पश्चात ही आई होगी। और इस क्षेत्र की उसकी प्रथम गुरु शायद चीटी रही होगी। क्योकि अगर( भूख भय और काम) इन तीन मूल प्रबृत्तियों को अलग कर दें तो मनुष्य का अपना कुछ मौलिक बचता ही नही। सब कुछ अर्जित ज्ञान ही रह जाता है। चीटी संग्रहन की गुरु इसलिए भी कि संग्रह के क्षेत्र में चीटी से अधिक जानकार और कोई जन्तु नही होता। उसका संग्रहीत बीज पानी में भींग कर अंकुरित न हो जाय अस्तु वह संग्रहन के पहले ही बीज के उस अंकुरित होने वाले भाग को कुतर कर नष्ट कर देती है। परन्तु आज जो अन्तर राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस मनाया जा रहा है वह उन वस्तुओं के संग्रहालय का है जिसका कभी मनुष्य उपयोग करता था पर बिकास के रास्ते आंगें बढ़ गया तो बहुत सी चीजें चलन से बाहर होकर पीछे छूट गईं ।
वह तमाम बस्तुए प्रागैतिहासिक काल के शैल चित्र से लेकर, बौद्ध काल के शिला लेख पत्थरों में उत्कीर्ण मूर्तिया खजुराहों के मंदिरों की मूर्तियां, राजा महाराजाओं के अस्त्रशस्त्र और वस्त्र आदि कुछ भी हो सकते हैं। भोपाल स्थित जन जातीय संग्रहालय की वह आदिवासियों द्वारा निर्मित वस्तुएं भी हो सकती हैं तो माधवराव सप्रे शोध संस्थान की लाइब्रेरी में लाखों की संख्या में रखीं पुस्तकें और समाचार पत्र भी।
इस क्षेत्र में हमारे सतना में भी राम वन के संग्रहालय में रखीं जिले भर से संग्रहीत मूर्तियां और सती स्तम्भ भी हो सकते हैं तो डॉ. सुधुनमाचार्य जी के संग्रहालय में संग्रहीत भरहुत स्तूप की मूर्तियों की अनुकृतियां भी। पर सतना के श्री सुधीर जैन एवं राजेन्द्र अग्रवाल जी के प्राचीन सिक्कों के संग्रहालय को भी कम करके नही आंका जाना चाहिए।
सत्तर के दशक में जब तक हरित क्रांति नही आई थी तो हमारे कृषि आश्रित समाज में खेती के तमाम परम्परागत लकड़ी, लौह, मिट्टी, सुतली, चर्म ,बाँस एवं पत्थर के उपकरण व बस्तुए प्रचलन में थीं। परन्तु यदि गांव में ट्रेक्टर आकर एक हल को भी घर से निकाल देता है तो उसके साथ लौह, लकड़ी ,बाँस मिट्टी, सुतली, चर्म की सैकड़ों अस्तुएँ चलन से बाहर हो जाती हैं। अगर बाजार में स्ट्रील के बर्तन आगये य प्लास्टिक की वतुएँ आगईँ तो उनके आने से भी धातु और बाँस शिल्पियों के बीसों बर्तन य उपकरण चलन से बाहर हो जाते हैं।
हमारे गांव के उन (लोक विद्याधरों ) के चलन से बाहर हो चुके हुनर को सम्मान मिले अस्तु हमने ऐसे लगभग 300 वस्तुओं को चिन्हित कर अपने ( कृषि आश्रित समाज के भूले विशरे उपकरण) नामक म्यूजियम में उन्हें यथा सम्भव स्थान दिया है। इसी प्रकार एक बीज संग्रहालय में भी लगभग 250 से अधिक चलन से बाहर हो चुके धान,गेहूं एवं मोटे अनाजों के परम्परागत बीज संग्रहीत हैं।
अगर आप हमारे यहां पधार कर संग्रहालय दिवस मनाएं तो यह संग्रहालय दिवस की सार्थकता तो होगी ही पर हमारे लिए भी एक गौरव की बात होगी।
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