।। बाबूलाल दाहिया ।।
प्राचीन समय में यदि कुछ अनाज रखने के लिए पके बर्तन मरका, मरकी, डहरी आदि कुम्हारों के यहां से बन कर आते थे, तो घर ग्रहस्ती के लिए कुछ उपयोगी मिट्टी के कच्चे बर्तन प्रायः हर घर की महिलाएं खुद भी बना लेती थीं। इन बर्तनों में अनाज रखने के लिए जहाँ पेउला, पेउलिया, कुठला, कुठली आदि होते, तो रोटी ढकने के लिए गोरसी, धान दराई के लिए कोनइता ( चकरा) एवं आग तापने के लिए सैरी भी वह खुद बना लेती थीं।
यह मिट्टी के बर्तन अमूमन पूस- माघ के महीनों में बनाए जाते थे, जिससे बैसाख जेठ तक अच्छी तरह से सूख जाँय। जानकारों का कथन था कि पूस- माघ के बने यह बर्तन बैसाख तक अच्छी तरह से सिझ जाने के कारण काफी मजबूत तो होते ही थे। उससे उनमें रखे अनाज में घुन कीड़े आदि भी नही लगते थे। साथ ही उनके अन्दर का ताप क्रम भी सामान्य रहता था। क्योंकि जब वह अच्छी तरह से सूख जाते तभी अंतिम रूप देकर उनमें अनाज भरा जाता था। महिलाओं द्वारा निर्मित मिट्टी के वह बर्तन इस प्रकार हुआ करते थे --
पेउला
यह लगभग 5 फीट ऊँचा 3 फीट चौड़ा महिलाओं द्वारा बनाया गया बीज रखने का चौकोर मिट्टी का पात्र होता था। इसमें बीज वाला अनाज एवं खाने के काम आने वाला दोनो तरह का अनाज रखा जाता था, जो एक खास तापक्रम में रहने के कारण खराब नही होता था। इसे महिलाएं अलग-अलग टुकड़ों में नाप जोख कर पुवाल की गहाई के समय निकली पेरौसी मिलाकर गीली मिट्टी से बनाती थीं।
पहले 3 फीट लम्बा चौड़ा या आवश्यकतानुसार नाप का जमीन में दो इंच मोटा एक चौकोर आधार बनाया जाता। और उसमें जमीन में रखने के लिए बीच में दो तीन इंच ऊपर को उभरे हुए दो गोड़ा भी बना दिए जाते। उसके सूख जाने पर उसे औधा कर दो- दो दिन के अंतराल में उसमें एक - एक फीट ऊँचे पेउला के दीवार के खण्ड बनाकर जोड़ते जाने पर जब वह 5-6 फीट ऊंचे बनकर पूरे हो चुकते तो उस को गीली मिट्टी और गोबर से छाप लीप कर चिकना बना दिया जाता। इस तरह नीचे के चौकोर आधार उन दो पाव के सहारे पेउला खड़ा रहता और ऊपर का भाग भी चौकोर बनता जिसमें आदमी के घुसने के बराबर का एक हाथ का छेंद भी होता था।
पर उस छेंद को ढकने के लिए भी एक गोरसी बनाई जाती थी। इस पेउला में धरातल से बगल की ओर अनाज को बाहर निकालने के लिए भी 4 इंच का चौकोर एक छेंद होता था, जिसे पेउना या अउना कहा जाता था। उस अउना को अनाज भरते समय कपड़े और मिट्टी से छाप दिया जाता था। परन्तु जब पूरा अनाज निकालना हो तभी पेउना को अउना से खोला जाता। यदि कम अनाज निकालना हुआ तो गोरसी को हटा कर ऊपर से ही टोकनी से निकाल लिया जाता था। पर अब यह पूर्णतः चलन से बाहर है।
पेउलिया
यह छोटे आकार का पेउला होता था, जो बड़े पेउला की तरह ही चौकोर बनता था और उसे भी अलग-अलग खण्ड में जोड़ कर बनाया जाता था। उसे भी पूर्ण रूप देने के पश्चात उसी तरह मोहड़ा को बन्द करने के लिए भी एक गोरसी बनाई जाती थी। पर अनाज निकालने के लिए पेउना भी उसी तरह होता था। आकार में वह दो ढाई फीट ऊँचा और लगभग इतना ही चौड़ा होता था। शायद इसी बौनेपना के कारण इसे पेउला के बजाय पेउलिया कहा जाता था। किन्तु अब पूर्णतः चलन से बाहर है।
कुठली
यह चौकोर पेउला के बजाय नीचे कुछ पतली बीच में मोटी एवं ऊपर पुनः पतले आकार की गोलाकार बनती थी। इसकी ऊँचाई 4 फीट एवं बीच की गोलाई का ब्यास लगभग तीन फीट होता था। इसे भी अलग-अलग गोलाकार खण्डों में जोड़कर बनाया जाता था और उसी तरह पेउना एवं गोरसी भी होती थी। पर यह कम मात्रा में अनाज रखने के लिए बनती थी, जिसे गोरसी हटाकर खड़े-खड़े ही अनाज को राँधने या आटा पिसाने के लिए निकाला जा सके।
कुठुलिया
यह कुठली की तरह ही बनती थी पर इसका आकार कुछ छोटा होता था, जिसमें दैनिक उपयोग के लिए अनाज, दाल आदि रखी जा सके। कुछ महिलाएं बिल्ली आदि से बचाने के लिए इसी में दूध,घी एवं मठ्ठा आदि भी रख देती थीं।
नोनहाई कुठली
प्राचीन समय में जब पिसे हुए नमक के बजाय डली वाला नमक आता था, तो वह बरसात में घुलकर खराब हो जाता था। अस्तु नमक रखने के लिए भी लगभग एक हाथ ऊँची एक छोटी कुठली बनाई जाती थी, जिसमें नमक भरकर रखा जाता था। और उसमें हवा प्रवेश न करे अस्तु ऊपर एक छोटी सी गोरसी भी रखी जाती थी।
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