Saturday, December 15, 2018

बुन्देलखण्ड के पचमढ़ी कल्दा पठार का उजड़ रहा नैसर्गिक सौन्दर्य

  •   अवैज्ञानिक विदोहन से विलुप्त हो रही हैं दुर्लभ वन औषधियां
  •   पठार के उजड़ रहे जंगल का संरक्षण और संवर्धन जरूरी



कल्दा पठार में श्यामगिरी स्थित वन विभाग का रेस्ट हाऊस। फोटो - अरुण सिंह 

  । अरुण सिंह 

पन्ना। बुन्देलखण्ड क्षेत्र का पचमढ़ी कहे जाने वाले कल्दा पठार का नैसर्गिक  सौन्दर्य उजड़ रहा है। यहां के जैव विविधता से परिपूर्ण घने और समृद्ध जंगलों पर खनन माफियाओं की नजरें गड़ी हैं। इनकी सक्रियता बढऩे से पठार की संस्कृति व पर्यावरण खतरे में है। यहां के जंगल में प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में दुर्लभ जड़ी बूटियां भी पाई जाती हैं, लेकिन इन जड़ी बूटियों को अवैज्ञानिक तरीके से अधाधुंध दोहन होने के कारण अनेकों वनौषधियां विलुप्त हो रही हैं। 

पन्ना जिले में सारंग मन्दिर की पहाडिय़ों से लेकर कालींजर तक वनौषधियों का अकूत भण्डार है। जिले के दक्षिण में आदिवासी बहुल कल्दा पठार जो पवई और शाहनगर दो विकासखण्डों की सीमा को घेरता है, यहां के समृद्ध वन क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में दुर्लभ जड़ी बूटियां पाई जाती हैं। जानकारों का कहना है कि कल्दा पठार के जंगल में पाई जाने वाली वनौषधियों की तासीर हिमालय पर्वत में पाई जाने वाली वनौषधियों से मिलती जुलती है।

उल्लेखनीय है कि पन्ना जिले को प्रकृति ने वनौषधियों व अन्य वनोपज से समृद्ध किया है। लेकिन वनों की हो रही अनियंत्रित कटाई व अवैज्ञानिक तरीके से वनोपज के हो रहे दोहन से जिले की यह प्राकृतिक संपदा धीरे-धीरे खत्म हो रही है। दुर्लभ वनौषधियों की अनेकों प्रजातियां विलुप्त हो जाने तथा जंगल की अवैध कटाई व अनियंत्रित उत्खन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर वन महकमे को जिस तरह से ध्यान देना चाहिये, वैसा नहीं हो रहा। नतीजतन वन क्षेत्र दिनों दिन सिकुड़ता जा रहा है। 

जिन इलाकों में डेढ़-दो दशक पूर्व तक घना जंगल था वहां का जंगल उजड़ चुका है और आस-पास पत्थर की खदानें चल रही हैं। जिन अधिकारियों के कंधों पर पर्यावरण संरक्षण और जंगलों की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी है वे भी अपने मूल कार्यों पर रूचि लेने के बजाय तथाकथित विकास, निर्माण और उत्खनन के कार्यों में ज्यादा रूचि ले रहे हैं। यही वजह है कि कल्दा पठार का जंगल भी अब खनन माफियाओं के निशाने पर है।

ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने हो पहल


कल्दा पठार के जंगल का विहंगम दृश्य। फोटो - अरुण सिंह 

पन्ना के समृद्ध और खूबसूरत वन क्षेत्र में ईको टूरिज्म के विकास की अपार संभावनायें मौजूद हैं। यदि इस दिशा में सार्थक और रचनात्मक पहल शुरू हो तो इससे रोजी और रोजगार के भी नये अवसर पैदा हो सकते हैं। कल्दा पठार का जंगल तो ईको टूरिज्म के लिये एक आदर्श वन क्षेत्र है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र का पचमढ़ी कहा जाने वाला यह पूरा इलाका खनिज व वन संपदा से समृद्ध है। यहां चिरौंजी, आँवला, महुआ, तेंदू, हर्र, बहेरा, शहद व तेंदूपत्ता जैसी वनोपज जहां प्रचुर मात्रा में पाई जाती है, वहीं इस पठार में दुर्लभ जड़ी बूटियों का भी खजाना है।

यहां के जंगल में सफेद मूसली, खस, महुआ गुठली, हर्र, बहेरा, काली मूसली, सतावर, मुश्कदारा, लेमन ग्रास, कलिहारी, अश्वगंध, सर्पगंध, माल कांगनी, चिरौटा, लहजीरा, अर्जुन छाल, मेलमा, ब्राह्मी, बिहारी कंद, मुलहटी, शंख पुष्पी, सहदेवी, पुनर्नवा, धवर्ई, हर सिंगार, भटकटइया, कालमेघ, जंगल प्याज, केव कंद, तीखुर तथा नागरमोथा जैसी वनौषधियां प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। 

यदि कल्दा पठार के नैसॢगक सौन्दर्य तथा यहां पर प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली दुर्लभ वनौषधियों का संरक्षण व संवर्धन किया जाये तो इस वन क्षेत्र में ईको टूरिज्म को बढ़ावा मिल सकता है। ऐसा होने पर यहां के रहवासियों को जहां रोजगार मिलेगा वहीं यहां की प्राकृतिक खूबियां भी बरकरार रहेंगी।


विनाशकारी विदोहन पर लगना चाहिये रोक



कल्दा क्षेत्र में चलने वाली खदानों का नजारा।

जंगल में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली दुर्लभ वनौषधियों के विनाशकारी अवैज्ञानिक विदोहन पर प्रभावी रोक लगनी चाहिये ताकि वनौषधियों को विलुप्त होने से बचाया जा सके। प्रकृति ने मनुष्य को औषधीय पौधों के रूप में अरोग्य का अमूल्य वरदान दिया है। प्रकृति प्रदत्त औषधीय जड़ी-बूटियों के विशिष्ट भागों का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार में मनुष्य आदिकाल से करता आ रहा है। लेकिन बढ़ती आबादी के साथ-साथ माँग बढऩे पर औषधीय पौधों का अधाधुंध दोहन होने लगा, जिससे औषधीय पौधे अल्प उपलब्धता से लेकर विलुप्ति के कगार तक पहुँच गये। 

उदाहरण के लिये सर्पगंधा एक ऐसा पौधा है जिससे रक्तचाप एवं अति उत्तेजना को कम करने की औषधि निर्मित की जाती है। सर्पगंधा के इन गुणों के कारण औषधि कंपनियों द्वारा माँग बढ़ती गई एवं अधिक विदोहन के कारण इसका पुनरोत्पादन धीरे-धीरे कम होने लगा। फलस्वरूप यह औषधीय गुणों वाला पौधा अब विलुप्तप्राय प्रजातियों में गिना जाने लगा है। पन्ना के जंगलों में पाई जाने वाली वनौषधियों के विनाशकारी विदोहन पर रोक लगाने तथा लोगों में जागृति लाने के लिये विशेष पहल व प्रयास बेहद जरूरी हैं ताकि जंगल में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली वनौषधियों का संरक्षण और संवर्धन हो सके।

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