पूरी पृथ्वी एक शरीर है। इस शरीर में चोट किसी एक जगह लगती है तो दर्द पूरे शरीर में होता है। बीमारी कहीं होती है तो दवा किसी को खानी पड़ती है। परहेज भी किसी को करना पड़ता है।
हमारी पूरी कायनात इसी तरह से बनी है। समुद्र धरती को ठंडा करते हैं। जंगल सांस लेते हैं। हिमनद उन नदियों को जनम देते हैं जो मैदानों तक पानी पहुंचाती हैं। समुद्रों के ऊपर से बादल बनते हैं और न जाने कहां जाकर बरस जाते हैं। रेतीले तूफान किसी रेगिस्तान से जाकर उठते हैं और कहीं और जाकर लोगों को दम घोंटने लगते हैं। यह पूरा एक सिस्टम है जो हजारों-करोड़ों सालों में प्रकृति के अलग-अलग तत्वों के घात-प्रतिघात से तैयार हुआ है।
इस सिस्टम में हर किसी की अपनी जगह महत्वपूर्ण है। हर किसी को अपना रोल अदा करना है। जैसे किसी नाटक में अगर पहले वाला पात्र अपने संवाद भूल जाए तो दूसरे वाले के सामने भी अपना संवाद बोलने की समस्या पैदा हो जाती है। वह क्या बोले। जब पहले वाला ही नहीं बोल रहा है। कहने का मतलब यह कि पृथ्वी के एक सिस्टम के काम करने के लिए जरूरी है कि दूसरा भी काम करता रहे। अगर हिमनदों पर हर साल इतनी बर्फबारी नहीं होगी, जितनी हर साल पिघलकर नदियों के जरिए समुद्र में पहुंच जाती है, तो कुछ ही दिनों में हिमनद गायब हो जाएंगे। अगर जमीन के नीचे से हम जितना पानी हर साल निकालते हैं अगर उतना पानी हर साल अंदर नहीं जाएगा तो कुछ ही दिनों में मिट्टी की नमी समाप्त होने लगेगी और जमीन की उर्वरता नष्ट होगी और रेगिस्तानीकरण बढ़ने लगेगा।
पूरी पृथ्वी एक शरीर है। लेकिन, उस पर कोई एक परिवार नहीं, बल्कि पूंजीवाद राज कर रहा है। यही हमारी धरा का शायद सबसे बड़ा विरोधाभास है। सवाल यह है कि यह पूरी वसुधा एक कुटंब बने कैसे। परिवार वह होता है जिसमें हर कोई अपनी सामर्थ्य भर काम करता है और आवश्यकता भर प्राप्त करता है। यहां पर बीमार, कमजोर और बुजुर्ग लोगों को मरने के लिए छोड़ नहीं दिया जाता। उन्हें उनकी आवश्यकता भर मिलता है। वे भी समाज में अपनी सामाजिक भूमिका अदा करते हैं। इस पूरी धरती को एक परिवार की तरह काम करना चाहिए था। लेकिन, यहां पर कुछ लोगों के धनसंग्रह की हवस पूरी दुनिया की भलाई पर भारी पड़ रही है।
यह दुनिया मानवता की भलाई के लिए संचालित नहीं हो रही है। इसके संचालन के केन्द्र में मुनाफा है। यह पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए संचालित हो रही है। दुनिया की आबादी सात अरब के लगभग है। इस पर 195 देश बसे हुए हैं। लेकिन, इस पूरी दुनिया को संचालित मुश्किल से एक करोड़ लोग कर रहे हैं। मुश्किल से दस करोड़ लोग इस सिस्टम के संचालन से फायदा उठाने वालों में शामिल है। बाकी लोग किसी तरह से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। हर रोज उनकी कोशिश यही रहती है कि जो जीवन वो जी रहे हैं, कहीं उससे भी नीचे न गिर जाए।
विरोधाभास यही है। पृथ्वी अब जहां पहुंच गई है, वहां अगर मुनाफे का यह तिलिस्म तोड़ा नहीं गया तो पूंजीवाद का यह भस्मासुर पूरी पृथ्वी को ही भस्म करने पर उतारू हो गया है। पृथ्वी को भस्म करने के साथ ही वह खुद को भी भस्म कर लेगा। लेकिन, उतारू वह इसी पर है। शायद उसे उम्मीद है कि जब तक पृथ्वी नष्ट होगी वह किसी और ग्रह को खोजने में सफल हो जाएगा। चांद पर बस्तियां बसाने में सफल हो जाएगा। पृथ्वी को तबाह करने के बाद क्या करना है, शायद उसने प्लान बी तैयार कर रखा होगा।
लेकिन, हम लोग, जो इस दुनिया की बहुतायत है, पूंजीवाद के मुनाफे की हवस से पैदा हुए कैंसर से मरेंगे। क्या हमारा भविष्य प्रदूषण के धुएं से खांसते हुए मरने का है।
या फिर पृथ्वी को बचाने के लिए हम अपनी आवाज बुलंद करेंगे। यह पूरी पृथ्वी एक शरीर है और इस पर रहने वालों का एक परिवार होना चाहिए। परिवार यानी जिसमें हर कोई अपनी शक्ति और सामर्थ्य भर काम कर रहे और अपनी जरूरत भर प्राप्त करे। जरूरत से ज्यादा लेने या संग्रह करने का यहां पर सवाल ही पैदा नहीं होता।
- कबीर संजय की फेसबुक वॉल से साभार
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