Friday, September 20, 2019

कृषक जिसने पोषण से भरपूर मोटे अनाजों का किया संरक्षण

  • पद्मश्री सहित अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं बाबूलाल दाहिया 
  • जैव विविधता व धान की परंपरागत देशी किस्मों को संरक्षित करने का किया है कार्य 
  • मोटे अनाजों की उपेक्षा का परिणाम है कुपोषण, डायबिटीज और रक्तचाप : श्री दाहिया  


मोटे अनाजों की परंपरागत खेती के बारे में जानकारी देते हुए पद्मश्री बाबूलाल दाहिया। 

। अरुण सिंह 

पन्ना।  जैव विविधता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित कृषक बाबूलाल दाहिया जी ने धान की अनेकों किस्मों को न सिर्फ संरक्षित किया है अपितु जैविक खेती को बढ़ावा देने व मोटे अनाजों को सहेजने का भी कार्य किया है।  सतना जिले के पिथौराबाद गांव के निवासी श्री दाहिया बघेली के ख्यातिलब्ध कवि भी हैं। 
विंध्य और बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कभी बहुलता में उगाये जाने वाले मोटे अनाजों के बारे में उनका परम्परागत ज्ञान अतुलनीय है। परंपरागत देशी धान की बिसरा दी गईं न जाने कितनी किस्मों को आपने बड़े जतन के साथ सहेजने और संरक्षित करने का जहाँ काम किया है वहीँ सावा, काकुन ,कुटकी, कोदो , ज्वार, बाजरा , मक्का जैसे  मोटे अनाज अपने खेत में उगाकर खेती के पुराने परम्परागत ज्ञान की अलख जगाये हुये हैं। मोटे अनाजों की जैविक खेती का महत्व  व इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बावत भी दाहिया जी लोगों को जागरूक करते हैं।
    आपके मुताबिक  मोटे अनाज मुख्यतः अंग्रेजी के माइनर मिलट्स का  हिंदी अनुवाद है । वर्ना हमारे यहां यह सब के सब अनाज थे जिन्हें किसान समय - समय पर उगाता और खाता भी था, कोई मोटा पतला नही । क्यो कि वर्षा आधारित खेती में किसान इन्हें अपने पुरखो तथा खुद के अनुभव जनित ज्ञान के आधार पर  जिस बीज को खेत माँगता उसे ही  बोता । उस समय की परम्परागत खेती अनुभव जनित ज्ञान की  खेती थी। और खेत अनेक तरह के होते थे। यथा ऊँचे खेत, गहरे जल भराव वाले बांध, कम जल भराव वाले खेत, जल्दी सूख जाने वाले, हल्की  मिट्टी के खेत। जल भराव वाले खेतो में तो प्रायः जल्दी, मध्यम समय , या  देर से पकने वाली धान की खेती ही होती पर ऊँची और हल्की मिट्टी की जमीन में मोटे अनाज ही बोये जाते थे। इनमे कुछ ऐसे थे जो किसान को तुरन्त राहत पहुचाने लगते थे तो कुछ की यह विशेषता भी थी कि अकाल दुर्भिक्ष के समय के लिए उन्हें 80 वर्ष तक रखा जा सकता था। समय समय पर इन तमाम प्रकार के अनाजो के खाने से एक ओर जहां लोगो को तरह -  तरह के पोषक तत्व मिलते थे वहीँ औषधीय गुण होने के कारण बहुत सी बीमारियों से  भी बचाव होता। पर सबसे बड़ी विशेषता तो यह थी कि इन्हें यदि कम मात्रा में भी खा लिया जाय तो जल्दी भूख नहीं लगती। साथ ही  यह तभी खाए जा सकते थे जब दो हिस्सा दाल या  तरकारी हो। इसलिए इन्हें खाने से शरीर को भरपूर पोषक तत्व मिलते थे।

 कोदो 80 वर्ष तक रहता है खाने योग्य

 



कोदो हल्की और काली मिट्टी बाली दोनो प्रकार की भूमि में बोया जाता था। उसकी खेती प्रायः ऊँचे स्थान में की जाती थी । किसान प्रथम वर्ष कोदो उगाता और दूसरे वर्ष उसी खेत मे चने की खेती होती। उससे खेत की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती। किसानों का मानना है कि प्रथम वर्ष कोदो बोने के बाद  खेत मे कोदो की जड़ के सड़ कर खाद बनने से दूसरे वर्ष  चने की अधिक पैदावार होती है। कुछ किसान अपने बाधो को उपजाऊ बनाने के लिए भी दो तीन वर्ष में एक बार कोदो ज्वार और अरहर की बोनी करते थे। कोदो की फसल 3 से साढ़े तीन माह की होती है। इसे अकाल दुर्भिक्ष के लिए 80 वर्ष तक रखा जा सकता है। कोदो का चावल तथा रोटी दोनो खाई जाती है। इसका चावल 100 डेढ़ सौ ग्राम से अधिक नही खाया जा सकता। पर यह तभी खाया जा सकता है जब दो हिस्सा दाल या  सब्जी हो। इसे बरसात और ठंड के मौसम में खाने से तासीर गर्म होने के कारण सर्दी जुखाम आदि नहीं होती । दाहिया जी बताते हैं कि हमारे रीवा सम्भाग में लगभग 6000 तलाब हैं, पर उनको बनवाने में कोदो को ही श्रेय जाता है। क्यो कि अकाल दुर्भिक्ष के समय जनता पालयन न करे इसलिए राजा इलाकेदार, या सम्पन्न लोग अपने रिजर्व में रखे बनडे बखारियो के कोदो को निकाल काम के बदले अनाज पर तालाब बनवा देते थे।

अल्प बारिश में पक जाती है कुटकी 


 यह मात्र डेढ़ महीने की फसल है जिस पर  बघेल खण्ड में एक कहावत भी प्रचलित है कि तीन पाख दो पानी।पक आई कुटुक रानी।। कुटकी की खेती प्रायः हल्की जमीन में होती है। यह मानसून की पहली बारिश के बाद खेतो में बो दी जाती है बाद में कितना भी सूखा पड़े यह एक दो बार के बारिश में पक आती है। यह चीटियों को इतनी पसन्द है कि  अगर बुबाई कर हल न चलाया जाय तो चीटियां सारा बीज उठा ले जाती है। इसका चावल खिचड़ी और पेज बनाकर उपयोग होता है। कुटकी की खीर बहुत ही स्वादिष्ट होती है । आज कल इसकी खीर तो बड़े बड़े होटलो में परोसी जाती है।कोदो की तरह इसे भी अकाल दुर्भिक्ष केलिए 80 वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

मोटे अनाजों का बड़ा भाई सांवा





पकने के मामले  में  सांवा भी कुटकी का बड़ा भाई ही है, जो डेढ़ माह में पक जाता है। इसकी बुबाई मानसून की पहली बारिश के बाद बीज को खेत मे छिटक कर हल्की जुताई कर दी जाती है। फिर न तो कोई घास इसे दबा पाती और न ही सूखे का असर होता। सभी अनाजो से पहले पक जाने के कारण इसे अनाजो  का बड़ा भाई भी कहा जाता है। यथा सांवा जेठा अन्न कहावय।सब अनाज से आगे आवय।। इसे किसान ऊँचे खेतो में बोते है और अगस्त के अंतिम सप्ताह में कट जाने के बाद खेत की जुताई कर उसी खेत मे चना या अलसी की खेती की जा सकती है। सांवा अतीसार की मुफीत औषधि  है । इसका चावल और रोटी दोनो बनते हैं । किन्तु खीर बहुत ही स्वादिष्ट होती है।

भूख से राहत दिलाने वाला अन्न काकुन या कांग




 यह भी डेढ़ माह में पकने वाली और किसान को शीघ्र भूख से राहत दिलाने वाला अन्न है। इसकी एक बालिन्स लटक रही बालिया पक्षियों के आकर्षण का केंद्र होती है । तोते बाल को काट ले जाकर पेड़ में बैठ मजे से खाते है अस्तु इसकी अकेले के बजाय मक्के के साथ मिलमा खेती होती है। जिससे 3 फीट ऊँचा पौधा छिपा रहे। इसका चावल या  खीर के लिए उपयोग होता है।

दो महीने की फसल वाला अनाज मक्का


यह दो महीने की फसल वाला अनाज है। इसे भी पहली मानसूनी बारिश के बाद बोया जाता है। मक्के के लिए घर के पाश वाली ऊँची जमीन चुनी जाती है जिसमे पर्याप्त गोबर की खाद पड़ी हो। मक्के के बाद उसी खेत मे गेहूं चना और सरसों की फसल ली जा सकती है। इसकी रोटी दलिया खीर महेरी आदि बनती है कच्चे भुट्टे के दाने भून कर खाने में स्वादिस्ट होते हैं । इसका लावा भी भून कर खाया जाता है। यदि सिचाई का साधन हो तो अप्रेल मई में भी इसकी खेती हो सकती है।

 ज्वार की होती है मिलमा खेती


ज्वार की विभिन्न प्रकार की लाल, पीली, सफेद, मटमैली, एक दाने तथा दो दाने वाली 8-10 प्रजातियां होती हैं।
इसे मानसूनी बारिश के बाद खेत की अच्छी तरह जुताई कर 4-5  अनाजों  की मिलमा खेती की जाती है।
परम्परागत ज्वार का पौधा अमूमन 7-8 फुट का होता है और डेढ़ से 2 फीट के अंतराल से बोया जाता है। अस्तु नीचे का गेप भरने के लिए झाड़ीदार पौधा मूग उड़द और लम्बाई का गेप भरने के लिए तिल, अरहर अम्बारी आदि की मिलमा खेती भी की जाती है। ज्वार का तासीर गर्म होने के कारण इसे नवम्बर से फरवरी तक रोटी दलिया आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। ठंड के महीने में खाने से यह शीत जनित बीमारियों से भी बचाव करती है। बरसात में इसे भून कर महुए के साथ भी खाया जाता है। इस तरह यह मोटे अनाज शरीर के लिए काफी फायदेमन्द हैं  पर अफसोस कि जहां हमारे भोजन में पहले स्वाभाविक रूप से 10-12 अनाजो की बाहुलता थी अब  हमारा भोजन हरित क्रांति आने के बाद मात्र 3 अनाजो में ही सिमट गया है।  जिसके परिणाम भी कुपोषण और डायबिटीज , रक्तचाप आदि के रूप में दिखने लगा है।

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