आज दीपावली है। मुझे जहाँ तक स्मरण है मैं 1950 से हर साल दीपावली मनाता आ रहा हूं। उस समय मैं 7 साल का था। हमारे उस जमाने मे आज जैसे बम्म पटाखे छुरछुरी नहीं थे, पर पडाके हम भी फोड़ते थे। इसके लिए हमारे साथी खोखले बांस की एक पोगड़ी बनाकर क्यांच नामक पौधे के फल को उस बॉस के खोल में डालते और एक अन्य सीधी लकड़ी को जैसे ही पिचकारी की तरह उसे ठेलते तो उस पोगड़ी से बड़े जोर से पडाक की आवाज निकलती। उस स्वनिर्मित यंत्र से निकली पडाक की आवाज में जो आनंद या उल्लास की अनुभूति होती वह बाद में किसी भी बम्म पटाखे में नहीं दिखी।
जब अन्दर दीप जल जाते तो बाहर हम लोग अंड बिजोरा ,, जट्रोफा,, के बीज की गिरी को किसी तार या लकड़ी में पिरो लेते और उसे जलाते तो एक के बाद एक वह घण्टो प्रकाश देता रहता। मेरा ख्याल है कि शहर वालो ने उसी की नकल में बम्म, पटाखे, छुरछुरी आदि बनाया होगा। मैं स्कूल में दाखिला ले चुका था पर दशहरा से दीपावली तक उन दिनों 28 दिन की फसली छुट्टी होती, जिसमें हम लोग धान की गहाई और ज्वार की तकाई में परिवार की मदद करते ,गाय बैलो को खरिक ले जाते और हम उम्र साथियो के साथ खूब मौज मस्ती करते। मुझे उन दिनों का गाँव के तमाम कुटीर उद्यमियों का ब्यावसायिक ताना बाना देख ऐसा लगता है कि होली और दीवाली पूरी तरह कृषक संस्कृति उपजे नई फसल आने के आनन्द उल्लास के त्योहार हैं।
मेरे परिवार में उस समय माता पिता, बड़े भाई भाभी और 1 मुझसे बड़ी बहन इस तरह 6 सदस्य ही थे।
किन्तु दो गाय एवं 4 बैल थे । और वह सब उन दिनों की संस्कृति में हमारे परिवार के सदस्य जैसे ही थे। मुझे वह दीपावली इसलिए याद है कि उस दिन सब के घर दिया जले थे और सभी लोगो के गाय बैल उस दीपावली के दूसरे दिन गेरू से रगे सींग तथा मोहरा सिगोटी पहन कर खरिक गए थे । पर न तो हमारे यहां दीप जले थे न ही हमारे गाय बैलो की सींग रगी गई थी। मैंने घर आकर माँ से इसका कारण पूछा तो उनने बताया कि ,, दिवाली के दिन तुम्हारे काका का बछड़ा मर गया था इसलिए दीवाली हमारे यहां खुनहाव मानी जाती है। ,,बाद में घर की पोताई झराई दीपक जलाने आदि की रस्म एकादसी को पूरी हुई थी। पर कितना सम्मान था उन दिनों गाय बछड़ो का कि चाचा के घर भी बछड़ा मर जाए तो त्योहार खुनहाव। दूसरे दिन पिता जी एक टोकने में अनाज लेकर बैठ गए थे और जितने भी गाँव के वरगा वाले उद्दमी आये थे सभी को खुशी - खुशी निर्धारित मात्रा में अनाज दिया था। इस अनाज देने की त्योहारी रस्म को पेनी कहा जाता था। पर जब मैंने बड़े भइया से इसका मतलब पूछा तो उनने उसे दारू पीने का त्योहारी उपहार बताया था।किन्तु न तो खरिक में अब वह गेरू से रंगी चंगी गाय दिखती न मोहरा सिगोटी से अलंकृत बैल। उन सहायक उद्यमियों और कृषक पुत्रो ने भी उस पुराने अलाभकारी उद्यम और खेती को जी का जंजाल समझ भोपाल इंदौर ,गुजरात मुम्बई का रास्ता पकड़ चुके हैं।
क्योकि गाँव का अर्थशास्त्र एक दश टोका की बाल्टी की तरह है कि गाँव का पैसा बिभिन्न रास्ते से शहर रूपी कुएं में ही केंद्रित हो रहा है।
अलबत्ता जब गाँव के यह सभी करतूती त्योहारों में घर आते हैं तो उनके द्वारा लाये गये शहर के बम्म पटाखे रंग बिरंगी मूर्तियां झालरे आदि की भरमार और चटक मटक अवश्य गाँव मे दिखने लगती है।पर वस्तुतः गाँव मे वह आत्मनिर्भरता की ठोसाई नहीं है । सब कुछ दिखावटी है।क्यों कि अब अपना हिंदुस्तान गाँव में नहीं शहर में बसता है और शहर का लाया ही तरह - तरह का जहर खाता है।
@ बाबूलाल दाहिया
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