Thursday, October 31, 2019

मत छीनो बच्चे से उसका स्वर्ग

  • आखिर कहाँ चली जाती है बच्चे की निर्दोषिता, आंखों की ताजगी व सरलता ?



हर बच्चा स्वर्ग में पैदा होता है। फिर हम उसे भुलाने की कोशिश करते हैं। फिर हम उसे अपने नर्क की दीक्षा देते हैं। उस दीक्षा को हम संस्कार कहते, संस्कृति कहते, समाज कहते, धर्म कहते। हमने बड़े प्यारे नाम रखे हैं उस दीक्षा के। दीक्षा का मूल सार इतना है कि बच्चे से उसका स्वर्ग छीन लो। उसकी सरलता छीन लो। उसका निर्दोष भाव छीन लो। उसकी आंखों की ताजगी छीन लो। उसके चित्त का जो दर्पण जैसा निश्छल रूप है, उसे नष्ट कर दो भर दो कूड़े करकट से।
बच्चा पैदा होता है तो न हिंदू होता है, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन। बनाओ उसे जल्दी हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, बौद्ध। कहीं देर न हो जाए! उसे कुछ पता नहीं होता क्या बुरा, क्या भला। जल्दी उसे सिखाओ कि उसे बुरे भले का पता हो जाए! उसे कुछ पता नहीं है भविष्य का, अतीत का। उसे समय की भाषा सिखाओ! उसे अतीत की याददाश्तें सिखाओ, उसे भविष्य की आकांक्षाएं दो। उसे कुछ पता नहीं है कि महत्वाकाक्षी होना चाहिए। उसे दौड़ में लगाओ। उससे कहो  तुझे प्रथम आना है। उसे सिखाओ कि दूसरों की गर्दन काटनी है। उसे सिखाओ कि अपने जीने के लिए यह बिलकुल जरूरी है कि दूसरों की गर्दन काटी जाएं। उसे सिखाओ कि दूसरों के सिरों की सीढ़िया बनाओ और चढ़ते जाओ। उसे सीढ़ी चढ़ना सिखाओ। कहां पहुंचेगा, यह कुछ पता नहीं है, कोई कभी उस सीढ़ी से कहीं पहुंचा है, इसका भी पता नहीं है, मगर चढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। धन तो और धन, पद तो और पद। और की दीक्षा हम देते हैं। और की दीक्षा नर्क की दीक्षा है।
जितना है, उससे तृप्त मत होना। जो पास हो, उसकी फिक्र मत करना, जो दूर है, उसकी फिक्र करना। जो मिले, उसको भूल जाना, जो न मिले, उसके सपने देखना। और क्या नर्क है! असंतोष नर्क है। संतोष स्वर्ग है। जो है, बहुत है, जो है, बहुत खूब है, जो है, बहुत से ज्यादा है, जरूरत से ज्यादा है। और की जहा आकांक्षा नहीं है, जो मिला है उससे जो अनुगृहीत है, वह स्वर्ग में है। हर बच्चा स्वर्ग में है। इसलिए तुम देखते हो, कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। सब बच्चे सुंदर होते हैं। स्वर्ग में कोई कुरूप कैसे हो सकता है? सब बच्चे सुंदर पैदा हो जाते हैं। सुंदर ही पैदा होते हैं। फिर धीरे-धीरे कुरूप होने लगते हैं। फिर हिंदू , फिर मुसलमान, फिर ईसाई फिर हजार तरह के अहंकार और हजार तरह की सीमाएं और हजार तरह के बंधन और उनका चित्त संकीर्ण होता है, संकीर्ण होता जाता है। फिर एक कारागृह रह जाता है। फिर सभी लोग कुरूप हो जाते हैं। उस कुरूपता का नाम नर्क है।
@ ओशो ❤

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