- वन सम्पदा का भण्डार फिर भी यहाँ के आदिवासी बेवश व लाचार
- बड़े पैमाने पर अनियंत्रित उत्खनन से खूबसूरत जंगल हो रहा तबाह
अरुण सिंह,पन्ना। हरी-भरी वादियों और खूबसूरत घने जंगलों से समृद्ध रहा पन्ना जिले का कल्दा पठार धीरे-धीरे अपनी पहचान खो रहा है। इस इलाके में खनिज व वन संपदा का विपुल भण्डार है, फिर भी यहां निवास करने वाले आदिवासी बेवश, लाचार और गरीब-गुरवा हैं। राजनीतिक रसूखवाले लोग सरकारी मानकों की अनदेखी कर मनमाने तरीके से उत्खनन करके करोड़ों कमाते हैं और यहां रहने वाले आदिवासी बदहाली का दंश झेलने को मजबूर हैं। यदि यही आलम रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में यहां नदी, पहाड़ व जंगल इतिहास बन जायेंगे।
उल्लेखनीय है कि पन्ना जिला मुख्यालय से लगभग 70 किमी दूर समुद्र तल से तकरीबन दो हजार फिट की ऊँचाई पर स्थित कल्दा पठार को पन्ना जिले का पचमढ़ी कहा जाता है। लगभग 5 सौ वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस पठार में अधिसंख्य आबादी आदिवासियों की है। जिनका जीवन पूरी तरह से जंगल व वनोपज पर ही निर्भर है। प्रकृति के सानिद्ध में नैसर्गिक जीवन जीते हुये यहां के आदिवासी सदियों से जंगल को अपनी इबादतगाह मानते रहे हैं। लेकिन तथाकथित विकास व उत्खनन से जुड़े लोगों की दखलंदाजी बढऩे से यहां के रहवासियों का इबादतगाह तेजी से उजड़ रहा है। अवैध व अनियंत्रित उत्खनन तथा जंगल की कटाई से पठार के नैसर्गिक सौन्दर्य पर भी ग्रहण लगने लगा है।
वनों की अवैध कटाई तथा अधाधुंध उत्खनन से यहां प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली वनौषधियां व हरीतिमा तिरोहित हो रही है। आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक दलों में बड़े ओहदों पर बैठे लोग जो गरीबों और आदिवासियों के कल्याण का दम भरते हैं उन्हें उजड़ते जंगल व गायब होते पहाड़ नजर नहीं आते, जिनके बिना यहां के आदिवासियों का जीवन संभव नहीं है। कल्दा पठार का जंगल व यहां की हरी-भरी वादियां आदिवासियों की जिंदगी है, उनको उनकी जिंदगी से बेदखल किया जाना घोर अन्याय ही नहीं अपराध भी है। जंगल की अवैध कटाई व अधाधुंध उत्खनन आदिवासियों के नैसर्गिक जीवन व उनकी संस्कृति पर हमला है, जिसे रोका जाना चाहिये। कल्दा पठार के आदिवासियों ने बताया कि यदि बाहरी लोगों की दखलंदाजी बंद हो जाये तो हम यहां जंगल में खुशहाल जीवन जी सकते हैं।
इन्होंने बताया कि पठार के जंगल से यहां के वाशिंदों को इतना वनोपज मिल जाता है कि जिन्दगी बिना बाधा व परेशानी के चल जाती है। यहां महुआ, अचार, आंवला, हर्र व बहेरा जैसे वनोपज प्रचुरता में पाया जाता है। श्यामगिरी, रामपुर, मैनहा, धौखान, पिपरिया, जैतीपुरा, टीकुलपोंडी भोपार, कुसमी, झिरिया व डोंडी में ही 50 ट्रक से भी अधिक महुआ का संग्रहण हो जाता है। इसके अलावा अचार व महुआ गोही से भी आदिवासियों को अच्छी आय हो जाती है। अमदरा, मैहर, कल्दा, पवई व सलेहा के व्यापारी आदिवासियों से वनोपज खरीद लेते हैं। वन अधिकारियों ने जानकारी देते हुये बताया कि कल्दा पठार के श्यामगिरी का बांस पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध रहा है। यहां का जंगली बांस सालिड बैम्बू कहलाता था, जिसकी बहुत मांग थी। कागज इण्डस्ट्री ने इस बांस को बहुत पसंद किया और बड़े पैमाने पर इस बांस की सप्लाई कागज मिलों को हुई जिससे बांस का जंगल खत्म हो गया। कल्दा पठार के खत्म हो चुके ठोस बांस को फिर से पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। पठार के जंगल को लोक संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिये, ताकि यहां की वन संपदा व प्राकृतिक वैभव सुरक्षित रह सके।
शहद के उत्पादन में हुई भारी कमी
कल्दा पठार के घने मिश्रित वनों में कुछ वर्षों पूर्व तक प्रचुर मात्रा में तकरीबन सौ कुन्टल शहद का उत्पादन होता था, लेकिन विगत कुछ वर्षों से यहां के जंगलों की मधुमक्खियां नाटकीय ढंग से लुप्त हो रही हैं। नतीजतन शहद के उत्पादन में भारी कमी आई, अब बामुश्किल 25-30 कुन्टल शहद का ही उत्पादन हो पा रहा है। मधु मक्खियों का तेजी से लुप्त होना इस बात का संकेत है कि यहां विकास के नाम पर विनाश हो रहा है। पर्यावरण को बेहतर बनाने तथा वनस्पतियों के वजूद को कायम रखने में मधुमक्खियों का अहम योगदान होता है। मधुमक्खियां सिर्फ शहद का ही संग्रह नहीं करतीं अपितु वे अपने साथ फूलों के परागकण दूसरे फूलों तक पहुँचाकर वनस्पतियों को उगने में सहायता पहुँचाती हैं।00000
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