Monday, January 20, 2020

देश से प्रेम करें मगर आँखें बंद करके नहीं..



पने देश से प्रेम करें मगर आँखें बंद करके नहीं... आँखें खुली रखकर। जब अपना राष्ट्रगीत जन गण मन गाएँ तो रबीन्द्रनाथ ठाकुर को याद करें जिन्होंने इस गीत को लिखा था और जिन्होंने अपने जीवनकाल में राष्ट्रवाद से ऊपर मानववाद को रखा। इसी सिद्धांत की जमीन पर वे महात्मा गांधी से असहमत हुए। ये वही रवीन्द्रनाथ थे जिन्होंने परंपरा और पश्चिमी सभ्यता के बीच डोलते आधुनिक भारतीय मानस को समझा और अपने उपन्यास गोरा के नायक की रचना की।
गोरा एक ऐसे कट्टर और रूढिवादी हिंदू युवक की कथा है, जो अंततः  इस पहचान से मुक्त होकर एक सामान्य मानवीय अस्तित्व रह जाता है। हिंदू धर्म, जाति और कर्मकांड में दुराग्रह की सीमा तक आस्था रखने वाले युवक गोरा को जब पता चलता है कि वह हिंदू की जगह आयरिश माता-पिता की संतान है, तो एक झटके के साथ उसकी धर्म-जाति की पहचान धराशायी हो जाती है और वह जाति, रंग और धर्म विहीन मनुष्य रह जाता है। उसे लगता है कि वह एक संकीर्ण सत्य से मुक्त होकर बृहत सत्य के सामने आ खड़ा हुआ है।
जब राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान दें तो कर्नाटक के भूवैज्ञानिक पिंगली वेंकैया और आर्यसमाजी लाला हंसराज को याद करें, जिन्होंने महात्मा गांधी के निर्देश पर झंडे का डिजाइन तैयार किया था। ध्वज को सम्मान दें तो आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता मार्गरेट एलिजाबेथ नोबुल यानी सिस्टर निवेदिता को भी याद कर लें। ब्रिटिश लेखिका और महिला एक्टीविस्ट डा. एनी बेसेंट और भीखाजी जी रूस्तम कामा जैसी महिलाओं को भी याद करें। इन सबका भारत के राष्ट्रीय ध्वज में योगदान रहा है। भीखाजी कामा ने ही जर्मनी में पहली बार भारत का तिरंगा फहराया था।
वामपंथ को गाली देने से पहले भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी के लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ, बम का दर्शन और लेनिन की मृत्यु वार्षिकी पर तार को भी वक्त निकालकर पढ़ लें। स्टूडेंट पढ़ते नहीं यह कहकर दांत पीसने से पहले भगत सिंह का ही लेख विद्यार्थी और राजनीति भी पढ़ लें। जहां वे कहते हैं, वे पढ़ें। जरूर पढ़ें। साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें।देश के क्रांतिकारियों के नाम का इस्तेमाल करने से पहले उनके विचारों को भी जान लें। जब देश के सर्वोच्च प्रतीकों को सलाम करें तो याद रखें कि अशोक के तमाम शिलालेखों में पाया जाने वाले चक्र बौद्ध धर्म के दर्शन से निकला है। यह दुःख और दुःख से निर्वाण का प्रतीक है।
जब भारतीय सेना के बारे में सोचें तो देश के तमाम प्रांतों से आए उन सैनिकों के बारे में सोचें जिनसे उस सेना का निर्माण हुआ है। जब देश के बारे में सोचें तो उन आदिवासियों के बारे में भी सोचें जिन्होंने हमारे जंगलों और हरी-भरी धरती को अपने खून-पसीने से सींचा है। उन मल्लाहों के बारे में सोचें जिनका हमारी नदियों से मछली की तरह रिश्ता है। मिट्टी के बरतन बनाने वालों, लोहा कूटने वालों, पत्थर तोड़ने वालों, नालियों को साफ करने वालों के बारे में भी सोचें। वे आपके देश का एक अटूट हिस्सा हैं।
किसी भी  जिम्मेदार और संवेदनशील इनसान को अपने देश से प्रेम होता है। लेकिन देश आपका ड्राइंगरूम नहीं है और न ही देशप्रेम कोई रिमिक्स सांग है कि उसे जैसा चाहेंगे वैसा इस्तेमाल करेंगे। देशप्रेम की भी शर्ते है। दिमाग के दरवाजे तो खोलने होंगे। आप देशभक्ति को एक ढाल की तरह नहीं इस्तेमाल कर सकते कि जिसकी बात पसंद न आए झट से देशद्रोही साबित कर दो। देशभक्ति एक आवरण भी बन चुका है। कोई भी तर्क-कुतर्क हो उसके ऊपर देशभक्ति का आवरण चढ़ाकर पेश कर दें ताकि या तो सामने वाला लाचार हो जाय या फिर जवाब देते ही देशप्रेम पर सवाल खड़े कर दिए जाएं। यह बिल्कुल उसी तरह से है, जैसे पुरानी फिल्मों में खलनायक हीरो की मां या उसके छोटे भाई को खींचकर अपने आगे खड़ा कर देते थे कि अगर एक भी गोली चलाई तो पहले इनको लगेगी।
जब देश सोचें तो आसमान में बादलों से भी ऊपर उड़ते परिंदे की तरह सोचें न कि कुएं में बैठे किसी मेढ़क की तरह जो सोशल मीडिया पर आए मैसेज इधर से उधर फारवर्ड करता रहता है।
@Dinesh Shrinet की वाल से..

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