क्लाईमेट क्राईसिस आज के जमाने की सबसे जलती सच्चाई है। क्या कोरोना वायरस का इस पर्यावरण संकट से भी कोई संबंध है। क्या दुनिया के तापमान में हो रही बढ़ोतरी यानी ग्लोबल वार्मिंग को भी इस बीमारी के फैलने के पीछे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब अभी खोजा जाना है। लेकिन, इससे मिलते-जुलते कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब पहले ढूंढे जा चुके हैं।
कोरोना वायरस के भयंकर होने के पीछे ग्लोबल वार्मिंग का कितना हाथ है, इसके बारे में तो अभी गहन शोध की जरूरत है, लेकिन अभी तक हुए कई शोध इस बात का संकेत दे चुके हैं कि ग्लोबल वार्मिंग कुछ अन्य कारकों के साथ मिलकर कई प्रकार की बीमारियों को तेजी से फैलाने में जिम्मेदार बन रहा है। वैज्ञानिक लगातार चेताते रहे हैं कि क्लाईमेट क्राईसिस बीमारियों के पैदा होने और उनके फैलने के तरीके में बदलाव ला सकता है। हालांकि, क्लाईमेट क्राईसिस एकमात्र कारक नहीं है। यहां तक कि क्लाईमेट क्राइसिस के बगैर जगंलों को साफ करना, पर्यावास को नष्ट करना, तेजी से हो रहा शहरीकरण, वैश्वीकरण, इंटेसिव मीट प्रोडेक्शन और एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस जैसे कारक कोरोना वायरस या कोविड-19 जैसी बीमारियों के तेजी से फैलने और उनके भयंकरतम हो जाने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। इन बीमारियों से लड़ने की हमारी क्षमता भी क्लाईमेट क्राईसिस के चलते प्रभावित हो सकती है।
इसे डेंगू-मलेरिया के उदाहरण के साथ समझें। दुनिया के तापमान में बढ़ोतरी के साथ ही डेंगू-मलेरिया जैसी बीमारियों को फलने-फूलने के लिए ज्यादा उपयुक्त माहौल मिल रहा है। मौसम चक्र में आए परिवर्तन के चलते इन बीमारियों को फैलाने वाले मच्छरों को प्रजनन के लिए ज्यादा समय और उपयुक्त माहौल मिल रहा है। पर्यावरण में आने वाले बदलाव हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को कम असरदार बना रहे हैं। इंसानी शरीर तमाम किस्म की बीमारियों से खुद मुकाबला करने के लिए बना है। बैक्टीरिया और वायरस को मारने के लिए हमारा शरीर एंटीबॉडी पैदा करता है। पैथोजेंस को मारने के लिए हमारा शरीर खुद को तेजी से गरम कर लेता है। यहां तक कि कई बार हमारा शरीर खुद को गर्म करके यानी बुखार लाकर ही पैथोजेंस को मारने में सफल रहता है। लेकिन, तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी के चलते पैथोजेंस ज्यादा गरम वातावरण में पैदा हो रहे हैं, इसके चलते ज्यादा गर्मी में भी अपना अस्तित्व बचा पाने में सफल साबित हो रहे हैं। मानव शरीर की गर्मी या बुखार उन्हें ज्यादा नुकसान पहुंचाने में सक्षम साबित नहीं हो रही है। मानव शरीर में भी खुद को बचा जाने वाले पैथोजेंस अपने से बेहतर पैथोजेंस पैदा करते हैं जो और भी ज्यादा नुकसान दायक साबित होते हैं। जबकि, एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस के चलते इन बीमारियों में इस्तेमाल की जाने वाली दवाओं का असर भी कम हो रहा है।
हम लोग तमाम बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं। जबकि, उत्पादन बढ़ाने के लिए चिकन से लेकर मधुमक्खी तक को एंटीबायोटिक दवाओं का डोज दिया जा रहा है। इसके चलते एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस का खतरा बढ़ता जा रहा है। इस तरह, एक तरफ तो जहां इंसानों की प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है, वहीं इस प्रकार के सुपरबग पैदा किए जा रहे हैं, जिन पर दवाइयों का असर भी नहीं होता। इस स्थिति के चलते बीमारी ज्यादा विकट हो जाती है। बीते सौ सालों में जिस महामारी ने सबसे ज्यादा लोगों की जान ली उसे स्पैनिश फ्लू के नाम से जाना जाता है। 1918 से 1920 के बीच फैली इस बीमारी ने पूरी दुनिया में पांच करोड़ के लगभग लोगों की जान ली थी। यह बीमारी एचवनएनवन एंफ्लूएंजा वायरस के चलते फैली थी। जिसकी चपेट में दुनिया की एक चौथाई आबादी आ गई थी। इसी एचवनएनवन का एक नया वर्जन या स्ट्रेन वर्ष 2009-2010 में दुनिया पर हमला बोलने आया था। लेकिन, उस समय इस बीमारी से मरने वालों की संख्या 17 हजार के लगभग रही। यह सौ साल पहले की तुलना में तीन हजार गुना तक कम रही। इसके पीछे दुनिया भर में बीमारियों के बारे में जानकारी, उससे निपटने के तरीकों के विकास और दुनिया भर में बीमारियों से निपटने में सहयोग को मुख्य कारण माना जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि पर्यावरण परिवर्तन के चलते वर्ष 2030 तक हर वर्ष ढाई लाख ज्यादा लोगों की मौत होगी। जबकि, अगर समुचित कदम नहीं उठाए गए तो वर्ष 2050 तक ड्रग रेजिस्टेंट डिजीजेस के चलते वर्ष 2050 तक हर साल एक करोड़ तक लोगों की मौत हो सकती है। इसलिए नई पैदा होने वाली और फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए क्लाईमेट चेंज और एंटी माइक्रोब्रियल रेजिस्टेंस (एएमआर) दोनों से निपटने की जरूरत है। क्योंकि, यह एक ऐसा मुद्दा है जहां पर हमारा स्वास्थ्य और धरती का स्वास्थ्य आकर एक जगह पर मिल जाते हैं।
( कबीर संजय की फेसबुक वॉल से साभार )
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