अरुण सिंह, पन्ना। इस साल पृथ्वी दिवस के 50 साल पूरे हो रहे हैं। 'पृथ्वी दिवस या अर्थ डे' पहली बार साल 1970 में मनाया गया था। बीते इन 50 वर्षों के दौरान हर वर्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पृथ्वी दिवस मनाया जाता रहा है। पृथ्वी की दयनीय दशा व बिगड़ते पर्यावरण पर दुनिया भर में चर्चायें व बड़े सैमिनार आयोजित होते रहे, रैलियां निकाली जाती रहीं लेकिन पृथ्वी की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही चली गई। आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में पृथ्वी की सेहत को सुधारने और पर्यावरण संरक्षण के लिये संकल्प भी लिए जाते रहे हैं लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि यह सब कुछ केवल औपचारिकतावश किया जाता रहा है। अपनी न ख़तम होने वाली इच्छाओं और अनावश्यक जरूरतों की पूर्ति के लिये बीते 50 वर्षों में हमने सिर्फ पृथ्वी का दोहन किया है। हमने यह ग़लतफ़हमी पालनी शुरू कर दी कि पृथ्वी हमारी है, इसका दोहन कर तकनीकी प्रगति और समृद्धि हासिल करना हमारा हक़ है। पृथ्वी पर स्वामित्व की इस अहंकारी सोच के चलते हमने प्रकृति और पर्यावरण को अनदेखा किया। इसी का पारिणाम आज पूरी दुनिया भोग रही है, एक अद्रश्य वायरस ने मनुष्य की तकनीकी प्रगति, ज्ञान और सामर्थ्य को बौना साबित कर दिया है। कोरोना वायरस के कहर से पूरी दुनिया में लोग घरों में कैद होने को मजबूर हो गये हैं और पहली बार पृथ्वी दिवस पर पृथ्वी मुस्कुरा रही है।
गौरतलब है कि कोरोना संकट से पूरे विश्व को आर्थिक नुकसान हुआ है, लोगों की स्वतंत्रता और जीवनचर्या पर भी पाबन्दी लगी है। निश्चित ही यह स्थिति मनुष्य के लिये बेहद कष्टदायी है लेकिन इसका एक बड़ा फायदा भी हो रहा है। धरती को नया जीवन मिल गया है। न सिर्फ हवा बल्कि नदियों का पानी भी साफ हो गया है, जलचर भी इस अप्रत्याशित बदलाव से आल्हादित हैं। परिंदों की चहचहाहट बढ़ गई है, वन्य जीव निर्भय होकर आबादी क्षेत्रों के आसपास भी विचरण करने लगे हैं। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन हुआ तो न सिर्फ सड़कों पर वाहनों का चलन बंद हुआ बल्कि मानक के विपरीत चल रहीं तमाम फैक्ट्रियां भी बंद हो गईं। इससे वातारण काफी साफ हुआ है तथा प्रदूषण का स्तर कम हुआ है। देश व्यापी लॉक डाउन में पृथ्वी पर जैव विविधता बढ़ने के साथ ही पृथ्वी की सेहत भी सुधर रही है। पिछले एक माह से चले आ रहे लॉकडाउन के चलते पृथ्वी की सेहत में सुधार का दावा पर्यावरणविद भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रदूषण कम है जो पृथ्वी के लिये अच्छा है।
पृथ्वी दिवस और कोरोना संकट के समय आनंद सिंह की यह कविता मौजूदा हालातों पर काफी कुछ प्रकाश डालती है -
इंसान को
शिकायत थी
ज्यादा काम की
कमी आराम की
वक़्त नहीं होने की
ट्रैफिक भरे रास्तों की
हर जगह लगी
लम्बी लाइनों की।
और एक दिन जब
यह सब नहीं था
तब वो बेचौन थे
फिर से इन्हे
हासिल करने को।
बड़े - बड़े देशों में,
एक होड़ मची थी
रेंकिंग और दर्जों की,
कुछ महाशक्ति थे,
और कुछ को यकीन था,
कि अगला नंबर, उन्ही का है।
फिर एक दिन
धरे रह गए
सारे पैमाने,
अब जूझ रहे थे,
पूरी दुनिया के इंसान,
कि बस 'जीवन' बना रहे।
कोई 'टैग' रहे ना रहे।
संसार के रंगमंच पर,
इंसान सचमुच चिंतित थे
और दूर कहीं, नेपथ्य में
प्रकृति मुस्कुरा रही थी।
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Excellent Arun Singh ji.
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