Wednesday, May 27, 2020

तपै नवतपा नव दिन जोय,तौ पुन बरखा पूरन होय

  • नौतपा शुरू होते ही सूर्यदेव ने दिखाये उग्र तेवर
  • प्रचण्ड गर्मी से पशु, पक्षी व इंसान सभी बेहाल


नौतपा का यह प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से लिया गया है। 

अरुण सिंह,पन्ना। नौतपा शुरू होने के साथ ही सूर्यदेव के  उग्र तेवर नजर आने लगे हैं। झुलसा देने वाली प्रचण्ड गर्मी ने पशु, पक्षी व इंसान सभी को बेहाल कर दिया है। सुबह से ही तापमान का पारा चढ़ने लगता है, जो दोपहर तक 45 - 46 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर जाता है। वैज्ञानिक मतानुसार नौतपा के दौरान सूर्य की किरणें सीधे पृथ्वी पर आती हैं, जिस कारण तापमान बढ़ता है। अधिक गर्मी के कारण मैदानी क्षेत्रों में निम्न दबाव का क्षेत्र बनता है, जो समुद्र की लहरों को आकर्षित करता है। इस कारण ठंडी हवाएं मैदानों की ओर बढ़ती हैं। चूंकि समुद्र उच्च दबाव वाला क्षेत्र होता है, इसलिए हवाओं का यह रुख अच्छी बारिश का संकेत देता है।    
परम्परागत जैविक खेती को बढ़ावा देने के कार्य में पूरी तरह समर्पित पद्मश्री बाबूलाल जी दाहिया नौतपा का बखान अपने अंदाज में करते हैं। उनका कहना है कि  वैसे यह रोहणी नृक्षत्र है जिस के नव दिन  के समय को नव तपा कहा जाता है। इन नव दिनो में सूर्य हमारे सिर के ठीक ऊपर होकर गुजरता है , इसलिए सब से तेज गर्मी पड़ती है। आज हमारे पास गर्मी मापक यंत्र है जिसके जरिये मालुम पड़ गया कि हमारे यहां 44 डिग्री सेल्सियस ताप क्रम है। किंतु हमारे पुरखे अपने अनुभव जनित ज्ञान से ही ज्ञात कर लिए थे कि यह 9 दिन सर्बाधिक तपने वाले दिन है। आज हम कूलर, पंखे के बीच रह कर भी उमस महसूस करते हैं। किन्तु हमारे पुरखे इस तपन को झेल सुख की अनुभूति करते थे।
पहले अगर नवतपा 9 दिन खूब तपता तो किसान खुश होते कि इस वर्ष अच्छी बारिश होगी। पर अगर किसी साल प्री मानसून के बादल आकर एकाध दिन बूंदाबादी कर इसका मौसम बिगाड़ देते तो किसान निराश हो जाते कि,, इस वर्ष अच्छी बारिश न होगी ? क्योकि उनकी पूरी खेती वर्षा आधारित ही होती थी। नवतपा के बाद में तो प्रायः यूं ही मृगसिरा नृक्षत्र में हर साल  प्री मानसून बारिस होती है । पर नवतपा नव दिन तपे तभी किसान खुश होते थे।हमारे यहां एक और कहावत कही जाती है कि श्आधा जेठ अषाढ़ कहावै श्  इसलिए यह नृक्षत्र यू ही किसानों के लिए खेती की तैयारी का होता था जिसमे घर के छान्ही छप्पर, खेतो में गोबर की खाद डालना , नये बैलों को हल में चलाने के लिए दमना, बंधी - बाधो के नाट मोघे बाधना आदि बहुत सारे काम होते थे। उधर कुम्हार समुदाय के लोग इसी पखबाड़े में घर के खपरे पाथ कर पकाते अस्तु प्रकृति से जुड़े तमाम लोगो को यह जान ही न पड़ता कि कब जेठ का यह महीना आया और बीत गया ? पर अब तो किसानों को न तो जेठ से मतलब न अषाढ़ और न ही मृगशिरा य नवतपा से। पानी नही गिरा तो ट्यूबबेल  से निकाल लेंगे और घूर कताहुर की भी फिक्र नही, लाकर रसायनिक खाद डाल देंगे । बैल की तो जैसे अब जरूरत ही नही रही ? क्योकि एक ट्रैक्टर आया तो यू ही 20 बैल बूचड़ खाने भेज देता है। उसी का परिणाम है घर - घर बीमारी , पानी का संकट कुंये, तालाब, बाबड़ी, नदी सब जल हींन। कुम्हारों का खपरा उद्दोग खत्म ,पर्यावरण का विनाश, पर आदमी जानते हुए यह विनाश  रूपी विकास अपनाये जा रहा है।
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