Thursday, May 28, 2020

कोरोना संकट के चलते विकराल हुई टिड्डी दल की समस्या

  • रेत वाली जमीन जहाँ अण्डे दिये वहां इनको नष्ट करने का काम नहीं हुआ
  • नियमित अंतराल पर बारिश होने से कीटों को पनपने का वातावरण मिला 

                                       
टिड्डी दल को भगाने के प्रयास में जुटा एक ग्रामीण। 

अरुण सिंह, पन्ना। महज दो ग्राम की वजन वाली टिड्डी इन दिनों चर्चा में है। करोड़ों की तादाद में जब टिड्डी झुंड बनाकर किसी इलाके में धावा बोलता है तो चंद घण्टों में ही फसल व पेड़ पौधों को सफाचट कर देता है। पूरे सत्ताइस साल बाद टिड्डी दल देश के विभिन्न हिस्सों में भयंकर तरीके से हमले कर रहे हैं। राजस्थान, गुजरात, पंजाब, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश खासतौर पर इसके निशाने पर हैं। पहली बार टिड्डी दलों ने शहरी आबादी क्षेत्रों में भी घुसपैठ की है। क्या हैं ये टिड्डे, कैसे सफाचट कर देते हैं ये पूरी हरियाली तथा क्यों सत्ताइस साल बाद ये इतने भयंकर साबित हो रहे हैं।  इन बातों को जानने और समझने का प्रयास किया जाना जरुरी है। हमलावर हो चुकी इस टिड्डी दल की विकट समस्या से निपटने के लिये प्रशासन व जनता द्वारा विविध उपाय भी किये जा रहे हैं। टिड्डी दल को ख़त्म करने के लिये बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जा रहा है, जिससे मित्र कीटों का भी जहाँ सफाया हो रहा है वहीँ जैव विविधता को भी क्षति पहुँच रही है। इस सम्बन्ध में कृषि विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों का क्या कहना है इस पर नजर डालते हैं ताकि समस्या को समझने में मदद मिल सके।
उल्लेखनीय है कि टिड्डी दल किसी एक देश की समस्या नहीं हैं। ये एक ग्लोबल समस्या है। अरब सागर के तीन तरफ यानी अफ्रीका, अरब और भारतीय उप महाद्वीप के देश इसके हमलों से प्रभावित होते रहे हैं। माना जाता है कि क्लाईमेट क्राइसिस के चलते वर्ष 2018 में कुछ असामान्य चक्रवाती तूफान आये हैं। इनके चलते खासतौर पर अरब क्षेत्र में बरसात हुई। जिससे रेत वाली जमीन में ज्यादा नमी बनी, इसके चलते टिड्डी दलों की भयंकर पैदावार हुई है। आमतौर पर इनकी पैदावार पर रोक लगाने के लिए ऐसी जगहों जहां पर इन्होंने अंडे दिए होते हैं, वहां पर दवाओं का छिड़काव किया जाता है। लेकिन, इस बार कोरोना संकट के चलते ईरान का पूरा अमला उससे निपटने में ही जुटा हुआ था। इसके चलते इन कीटों को नष्ट करने का काम प्रमुखता से नहीं हुआ। जिसके चलते समस्या विकराल हो गई। भारत में इस बार मार्च, अप्रैल और मई के पहले पखवाड़े में लगातार ही नियमित अंतराल में पश्चिमी विक्षोभों की सक्रियता रही है। इसके चलते नियमित अंतराल पर बारिश हुई है। जिससे मौसम में नमी बनी रही। यह कीटों के पनपने के लिए बेहद मुफीद स्थिति बन गई। भारत के गुजरात, राजस्थान और पंजाब जैसे राज्यों में पिछले साल ही टिड्डी दलों का हमला हुआ था। लेकिन, इस समस्या पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। आश्चर्यजनक तौर पर टिड्डियां इस बार भयंकर ठंड में भी सर्वाइव कर गईं। जबकि, ठंड उतरते ही उन्हें नमी वाला बहुत ही अच्छा मौसम मिला। जिसके चलते उनके पैदावार में बड़ी तेजी आई।
पेड़ पर बैठा टिड्डी दल। 
आमतौर पर टिड्डी दल हर तरह के पेड़-पौधें, फसलें आदि चट कर जाते हैं। बड़े पेड़ों की भी कोमल पत्तियों और टहनियों को वे खा जाते हैं। एक सामान्य टिड्डी दल में पंद्रह करोड़ तक की संख्या में टिड्डे हो सकते हैं और हवा अगर मुफीद हो तो वे 150 किलोमीटर तक की यात्रा एक दिन में कर सकते हैं। एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला एक सामान्य टिड्डी दल एक दिन में 35 हजार लोगों के बराबर का खाना खा सकते हैं। बलुई जमीन को टिड्डी दल अपनी ब्रीडिंग कॉलोनी में बदल देते हैं। मादा टिड्डा जमीन में दो से चार इंच का छेद करके उसमें अंडे देती है। मेटिंग के आठ से 24 घंटों बाद मादा अंडे देने की शुरुआत कर देती है। अपने जीवन भर में एक टिड्डा पांच सौ अंडे देती है। यह भी देखने में आता है कि मादाएं एकदम करीब-करीब अंडे देती हैं। यहां तक कि एक वर्ग मीटर के बीच में पांच हजार तक अंडे हो सकते हैं। एक अंडा 7-9 मिलीमीटर लंबा होता है। गर्मी का मौसम टिड्डों के लिए बेहद मुफीद होता है। गर्मी के दिनों में इन अंडों में से 12 से 15 दिनों के भीतर ही बच्चे निकल आते हैं जबकि जाड़े के दिनों में तीन से चार सप्ताह लग जाते हैं। इन्हें निंफ कहा जाता है। गर्मी के दिनों में तीन से चार सप्ताह में निंफ बड़े हो जाते हैं और इनके पंख निकल आते हैं, जबकि, जाड़े के दिनों में इसमें छह से आठ सप्ताह लग जाते हैं। यूं तो टिड्डी दल हर प्रकार की हरी चीज को साफ कर कर देते हैं। लेकिन, ऑक, नीम, धतूरा, शीशम और अंजीर को वे नहीं खाते हैं। निंफ और वयस्क टिड्डा दोनों ही नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। जब ये टिड्डी दल अपने पूरे जोर पर होते हैं तो अकाल तक का खतरा पैदा कर देते  हैं। वर्ष 1926 से 31 के बीच भारत के अलग-अलग हिस्सों में लगातार टिड्डी दलों के हमले हुए। कहा जाता है कि उस समय तक टिड्डी दल फसलों को चट करने के लिए आसाम तक पहुंच गये थे। फसलों को खाने के अलावा शहरी क्षेत्रों में भी तमाम प्रकार की परेशानियां पैदा कर सकते हैं। घरों, बिस्तरों और रसोईघरों में वे घुस जाते हैं। बहुत सारे लोग इसके प्रति एलर्जिक भी होते हैं। टिड्डी दलों की वजह से रेलवे लाइन पर घर्षण कम हो जाता है और इससे ट्रेन के फिसलने का खतरा पैदा हो सकता है। इसलिए ट्रेनों तक को रोकना पड़ता है। वे अगर जलाशयों में गिर जाते हैं तो पानी भी पीने योग्य नहीं रह जाता। एक विशालकाय टिड्डी दल दस वर्ग किलोमीटर तक में फैले हो सकते हैं। इस तरह के दल में तीन सौ टन तक टिड्डे हो सकते हैं। अभी तक ऐसे झुंड भी रिकार्ड किए गए हैं जो 300 वर्ग किलोमीटर तक में फैले थे। वे सूरज की रोशनी को रोक लेने वाले किसी काले-मनहूस बादल की तरह किसानों की आशाओं पर मंडराते हैं। आमतौर पर टिड्डा तीन से पांच महीने तक जीता है। हालांकि, यह भी मौसम के ऊपर बहुत कुछ निर्भर करता है। टिड्डा का जीवन चक्र तीन अलग-अलग हिस्सों में यानी अंडा फिर होपर या निंफ और वयस्क में बांटा जा सकता है।
टिड्डी दलों का हमला रोकने के लिए भारत में बहुत पहले से कृषि मंत्रालय के अंतर्गत लोकस्ट वार्निंग आर्गेनाइजेशन काम करता रहा है। इसके केन्द्र राजस्थान में जगह-जगह पर बनाए गए हैं। जहां पर टिड्डी दलों की आमद और उनकी ब्रीडिंग पर निगाह रखी जाती है। कुछ विशेषज्ञ तो यहां तक बताते हैं कि पहले इस संस्था के पास अपने विमान भी हुआ करते थे। इन विमानों के जरिए टिड्डी दलों पर छिड़काव किया जाता था और उनको समाप्त करने की कोशिश होती थी। इन कोशिशों को काफी कुछ कामयाबी भी मिली थी और टिड्डी दलों के हमले लगभग समाप्त हो गए थे। लेकिन, हाल के दिनों में मौसम का चक्र बिगड़ने के चलते टिड्डी दल फिर से हमलावर हो गए हैं। टिड्डी का कोई एक दल भारत में सक्रिय नहीं हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में टिड्डियों का एक दल घूम रहा है। इसके चलते हजारों करोड़ की फसलें चट होती जा रही हैं। जबकि, एक अन्य दल ने पाकिस्तान की ओर से प्रवेश किया है जो पंजाब में फसलों को चट करने में जुटा हुआ है।

कीटनाशकों के छिड़काव से पर्यावरण व जैव विविधता पर प्रभाव 


पेड़ पर छिड़काव करते हुए पन्ना टाइगर रिजर्व के कर्मचारी। 

टिड्डी दल को नष्ट करने के लिये जो कीटनाशक छिड़का जा रहा है उसके क्या प्रभाव है ? कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि  इस वर्ष याने मई 2019 से लेकर अभी तक लगभग 4.5 लाख लीटर कीटनाशकों का प्रयोग इन टिड्डियों पर राजस्थान में हो चुका है। जनवरी 20 तक  2.75 लाख लीटर तो अकेली मेलाथिओंन 96 प्रतिशत का उपयोग हो चुका है। तो इसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं कि  पर्यावरण व जैव विविधता पर कितना बडा प्रभाव पड रहा है। मरु जैव विविधता जंहा की फ़्लोरा कम व फ़्यूना ज्यादा है वँहा बेशक इन कीटनाशकों का प्रभाव अत्यधिक हानिकारक है। फिर इन कीटनाशकों के प्रयोग से टिड्डी के अलावा भी वे सभी छोटे कीट मर रहे है जिनको मारने की आवश्यकता नही है। मरी हुई टिड्डियों को खाने से अन्य बड़े पक्षी, कुत्ते, बिल्ली, अन्य रेप्टाइल्स व अन्य बेजुबान जानवर खाकर वैसे ही मर रहे हैं। बड़ी वनस्पतियो पर दवाई के प्रभाव से वो भी देर सवेर नष्ट हो ही जायेगी। मानव व पशु जो इन वनस्पतियों व इनके उत्पाद खा रहा है तो जाहिर है दूरगामी प्रभाव पीढ़ियों पर अवश्य पड़ेंगा, जैसे भोपाल गैस दुर्घटना के परिणाम आज 40 साल बाद भी वहां के पशु, पक्षी व मनुष्य झेल रहे हैं ।अतः कीटनाशक के प्रयोग से केवल टिड्डी को ही नुकसान न होकर हम सब को हो रहा है। जंहा राजस्थान सालाना अन्य फसलों में कीटनाशक डालता है उससे कंही ज्यादा तो अकेली टिड्डी में डाल चुका। अतः इसकी भयावहता से हम अभी भी अनभिज्ञ हैं। जंहा भी टिड्डी आ रही है वंही मनोरंजन के रूप में दवाइयों के डिब्बे व मशीन लेकर भाग रहे हैं और अपनी ही जैव विविधता को नष्ट करने में तुले हैं।

तो फिर नियंत्रण के क्या होंने चाहिये उपाय 

 प्रश्न उठता है नियंत्रण का अन्य उपाय क्या है ?  चूंकि टिड्डिया दिन में उड़ान भरती हैं और रात को आराम करती हैं। जाहिर है दिन में हम यांत्रिक विधियों से भगा देंगे लेकिन रात्रि में मारने के लिए हमे रासायनिक कीटनाशको का प्रयोग न करके कुछ ऐसे जैविक कीटनाशको का प्रयोग करना चाहिए जो पर्यावरण अनुकूल हो और टिड्डियों के प्रतिकूल। जैसे नीम आयल है,  कुछ नर फेरोमोन्स हो सकते हैं जो मादाओं को आकर्षित करके केवल उन्हें मारे। साथ ही अन्य विकल्प खोजे जाने चाहिये।अभी तक वैज्ञानिकों को टिड्डी के लिए जैविक विकल्प खोज लेना चाहिए था। ये हर साल अफ्रीका से लेकर भारत तक नुकसान पहुचाती हैं और हम ये भी जानते हैं कि रासायनिक कीटनाशको से ये मात्र 2-3 प्रतिशत ही खत्म होती हैं। तो फिर केवल दो प्रतिशत के लिए हम हमारी अन्य जैविक सम्पदा को नुकसान क्यों  पहुचा रहे हैं ? जंहा तक टिड्डी स्वयं के द्वारा लाभ की बात है तो ये मित्र कीट साबित हो सकती है। जैसा कि हम जानते है ये पोलिफेगस कीट है यानी जो भी वनस्पति व वनस्पति का भाग इसके सामने आया उसे खा जाती है। तो बड़े बड़े भू भागों पर जंहा खरपतवारों की समस्या है वँहा नियंत्रित परिस्थितियों में इनसे नष्ट करवाया जा सकता है, जैसे लेंटाना, पार्थेनियम, कंटेली, मदार ये ऐसे खरपतवार है जो फसलों को व पड़त भूमियों को खराब कर रहे है। कीटनाशक टिड्डियों से ज्यादा पर्यावरण व अन्य जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचा रहा है, इसके दूरगामी परिणाम भी ठीक नही होंगे। जैविक कीट या जैविक कीटनाशी रासायनिक कीटनाशको का विकल्प होना चाहिए एवं टिड्डी को स्वयं को भी मित्र कीट के रूप में उपयोग लेने की तरकीब निकालनी चाहिए।
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