Saturday, October 3, 2020

आखिर इस दर्द की दवा क्या है...

 

इंसानों की संवेदनशीलता और समझ पर प्रश्नचिह्न लगाता यह चित्र। (फोटो क्रेडिट चित्र में)

दस रुपये के कुरकुरे या टेढ़े-मेढ़े या लेज के पैकेट में शायद पचास या पचपन ग्राम खाने की चीज होती है। पांच रुपये वाले में शायद बीस ग्राम। खाने की यह चीज कुछ सेकेंड में खतम हो जाती है। लेकिन, जिस चीज में यह पैक करके आती है, वह हजारों सालों में खतम नहीं होती। 

जाहिर है कि प्लास्टिक उन कुछ चीजों में शामिल है जो इंसानियत के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। लेकिन, फिलहाल तो यह आधुनिकता और संपन्नता की प्रतीक है। अब दिल्ली को ही लीजिए। देश की राजधानी में प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन राष्ट्रीय औसत से पांच गुना ज्यादा है। यानी किसी गांव, कस्बे या दूर-दराज के क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति की तुलना में दिल्ली में रहने वाला व्यक्ति पांच गुना ज्यादा प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। 

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरमेंट का दावा है कि देश में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन सबसे ज्यादा गोवा में है। टूरिज्म आधारित अर्थव्यवस्था जमकर प्लास्टिक कचरा पैदा कर रही है। इसके बाद दूसरे नंबर पर दिल्ली है। प्लास्टिक कचरा पैदा करने के मामले में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय औसत 7.6 ग्राम प्रतिदिन का है। जबकि, गोवा में यह प्रतिव्यक्ति औसत 61.2 ग्राम का है। दिल्ली में यह प्रतिव्यक्ति औसत 36.2 ग्राम प्रतिदिन का है। दिल्ली के बाद चंडीगढ़, पुद्दुचेरी और गुजरात प्रतिव्यक्ति कचरा उत्पादन के मामले में क्रमशः तीसरे, चौथे और पांचवे नंबर पर हैं। लाइन से देखिए, ये सब देश के तुलनात्मक रूप से आधुनिक और संपन्न हिस्से हैं। 

पूरी दुनिया में ही हर दिन पैदा होने वाले प्लास्टिक का सत्तर फीसदी तक का हिस्सा केवल पैकेजिंग में इस्तेमाल होता है। चाहे खाने के पैकेट हों, किताबों के पैकेट हों, खिलौने के पैकेट हों या कुछ भी और। कहीं कुछ भेजना है, कहीं कुछ पहुंचाना है। सबकुछ को प्लास्टिक में बंद किया जाता है। जब वो सामान सही जगह पहुंच जाता है तो पैकेजिंग उतार दी जाती है। फिर उसे फेंक दिया जाता है। वो प्लास्टिक कचरा है। किसी ने कहा है कि मिनरल वॉटर कंपनियां मिनरल वाटर का उत्पादन नहीं करतीं। वो केवल प्लास्टिक का उत्पादन करती हैं। दुनिया भर में पानी की बोलतें मुसीबत बन गई हैं। 

प्लास्टिक हजारों सालों तक जमीन को, पानी को और हवा को खराब करता है। ये वही चीजें हैं, जिनके बिना हम जी नहीं सकते। जमीन पर हम रहते हैं, अपना खाना उगाते हैं। पानी से हम बने हैं। हवा में हम सांस लेते हैं। लेकिन, प्लास्टिक कचरा इन तीनों में ही जहर घोल रहा है। 

अगर सिर्फ सामान की पैकेजिंग के तरीके में ही बदलाव किया जा सके तो हजारों टन प्लास्टिक को पर्यावरण खराब करने से बचाया जा सकता है। लेकिन, इसी दुनिया में चंद कंपनियां हैं, उन कंपनियों से मुनाफा कमाने वाले पूंजीपति हैं। वे प्लास्टिक का उत्पादन करते हैं। प्लास्टिक ने उनकी अमीरी पैदा की है। दुनिया चाहे भाड़ में चली जाए, लेकिन वे अपनी इस अमीरी को खोना नहीं चाहते। 

तो नतीजा क्या है, प्लास्टिक पैदा होता ही रहेगा, भले ही यह हमारी सासें ही क्यों न छीन ले....

#जंगलकथा 

00000 


No comments:

Post a Comment