यह गोधन नाम से दीपावली के दूसरे दिन गोबर की बनाई जाने वाली एक स्त्री आकृति है, जिसे हर किसान परिवार की महिलाएं आंगन में बनाकर इसकी पूजा करती हैं। जिसके घर मे जितना पशुधन उतनी ही बड़ी गोधन।
पहले हमारे घर मे चार बैल और पाँच छ: गायें व बछड़े-बछिया हुआ करती थीं। तब की गोधन काफी बड़ी होती और उसके आस पास चरवाहों एवं जानवरों की प्रतीकात्मक आकृतियां भी होती। पर अब मात्र औपचारिकता ही रह गई है। घर में दो गाय हैं अस्तु उन्ही के गोबर के अनुपात में दुबली पतली गोधन भी। लेकिन इस गोधन के साथ आज घर से बाहर निकाल दिए गए उन तमाम गोधनो की याद आये बिना नहीं रहती जो बेचारी दिन भर इधर उधर डण्डे खाने के बाद रात्रि किसी हाइवे में खड़ी देखी जा सकती हैं।
प्राचीन समय में जब गांव एक आत्मनिर्भर इकाई हुआ करते थे, तब यह सचमुच गोधन थीं। क्योकि हमारे कृषक पूर्वजों का इनसे मूक समझौता सा हुआ करता था। हमारे किसान पूर्वज उन्हें घास खिलाते वह उन्हें दूध खिलाती। उस घास से गाय तंदुरस्त होतीं और उनके दूध से हमारे पूर्वज। गाय बछड़ा जनती वह बड़ा होकर हल खींचता और हमारे पूर्वज हल की मूठ सम्हालते। किन्तु उत्पादन में भूसा, पुआल, चुनी, चोकर, कना गाय बैल का और दाना किसान पूर्वजों का। गाय बैल गोबर करते और हमारे पूर्वज खाद बना उसे गाड़ी में भरते। किन्तु उसे खेत तक खींच कर बैल ही ले जाते। लेकिन उत्पादन में अपने अपने हिस्से की समान भागीदारी। और यदि गाय बैल बूढ़े हो जाय तो उन्हें जीवन पर्यंत खिलाने पिलाने की नैतिक जिम्मेदारी भी किसान की होती। क्योकि कि वह परिवार के अंग समझे जाते। पर जबसे ट्रैक्टर हार्वेस्टर आ गये तो नई पीढ़ी ने उन्हें निकाल बाहर कर दिया। क्यो कि पहले की खेती पेट की खेती थी लेकिन आज की खेती सेठ की खेती हो गई है। जो गाँव से नही शहर से संचालित होती है और उत्पादन का 90 प्रतिशत हिस्सा बिभिन्न माध्यमों से शहर ही चला जाता है।
@बाबूलाल दाहिया
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